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+ प्रास्रोपवासङ्तका निरूपण «
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ब्रह्माजीने कहा -अब मैं चातुर्मास्यतव्रतको कहता हूँ।
इस व्रतका आरम्भ आषादुमासकौ एकादशी या पूर्णिमा
तिधिमें सब प्रकारसे भगवान् हरिका पूजन करके करे ।
व्रतारम्भके समय इरः प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये-
(१२१॥ २-३)
है देव! आपके समक्ष मैंने इस व्रतको ग्रहण किया है।
है केशव! आपके प्रसन्न होनेपर मुझे निर्विघ्न सिद्धि प्राप्त
हो। है देव ! ग्रहण किये गये इस व्रतकी अपूर्णतापें ही यदि
मैं मृल्युकों प्राप्त हो जाता हूँ तो भी है जनार्दन! आपकी
कृपासे यह मेरा व्रत पूर्ण हो।
इस प्रकार हरिका पूजन करके व्रत, पूजन और
जपादिका तियम ग्रहण करना चाहिये। जो हरिके त्रतको
करनेकी इच्छा करता है, उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते
हैं। साधक स्नान करके भगवान् हरिका पूजन कर इस पूजा
तथा जपादिकौ विहित क्रियाओंकी पूर्तिका संकल्प ले तथा
निरूपण
आपाढ़ आदि चार मासोंतक एकभक्तव्रत करता हुआ
विष्णुकी पूजा करें। ऐसा करनेवाला विष्णुके परम पवित्र
निर्मल लोकमें चला जाता है।
मधु, मांस, सुरा और तेलका परित्याग करनेवाला जो
वेदपारंगत, कृच्छृपादेब्ती विष्णुभक्तं हरिक पूजन करता है,
वह विष्णुलोकको प्राप्त हो जाता है। एक रा्रिका
उपवास करनेसे वैमानिक (विमानपर चढ़कर श्रपण
करनेवाला) देवता हो जाता है। तीन रात्रिपर्यन्त उपवास
कर पष्ठांश भोजन करनेसे साधकको श्रैतद्वीपको प्राप्ति
होती है। चाद्धायणत्रत करनेसे तो भगवात् हरिका लोक
और पुक्ति बिना योगे हौ मिल जाती है। प्राजापेत्यव्रत
करनेसे विष्णुलोक तथा पराक्ेत करनेसे हरिकी प्राप्ति
होती है।
इस वरतम सत्तू, यवाप्नकी भिक्षा कर, दूध, दही तथा
घृतका प्राशन कर, गोमूत्रयावकक्रा आहार कर, पञ्चगव्यका
पान कर अथवा सभी प्रकारके रसॉंका परित्याग कर
शाक-मूल-फलादिका भक्षण करते हुए जो साधक विष्णुकी
भक्ति करता है, वह विष्णुलोकको प्राप्त करता हैं।
(अध्याय १२१)
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मासोपवासत्रतका निरूपण
ब्रह्माजीने पुनः कहा--अब मैं आपसे मासोपवास
नामक उस सर्वोत्तम व्रतका वर्णने करूँगा, जिसका पालन
वानप्रस्थ, संन्यासी और नारीकों करना चाहिये।
आश्चिनमासके शुक्लपक्षकी एकादशी तिथिमें उपवास
रखकर तीस दिनपर्यन्त इस व्रतको धारण करनेका विधान
है। ब्रतारम्भके समय सर्वप्रथम भावान् विष्णुसे इस प्रकार
प्रार्थना करनी चाहिये-
अद्यप्रभृत्यहं विष्णो.यावदुत्थानकं॑ तव।
प्रिये यथ्यन्तराले तु कतभङ्गौ न में भवेत्॥
(१२३२ ३-४)
है विष्णो! आजसे लेकर जबतक आपका शयनोत्थान
नहीं हो जाता है, तबतक तीस दिनपर्यन्त बिना भोजन किये
१- कृच्छपादद्रत - यह तीन दिनक द्रत टै । पहले दिन दिने एक यार हविष्य ग्रहण, दूस दिन अयाचितरूपमें हविध्याप्रका एक यार
ग्रहण और तीसरे दिन अहोरा उषबाग्र । { यार स्मृति प्राय० श्लोक ३१८)
२- बान्द्रायनब्रल- यह द्रत अनेक प्रकारका है । मनु० ११। २१६ के अनुसार यह है प्रतिदिने तौव काख स्वाय । पूर्णिमासे व्रतक्य आरम्भ ।
इस दिव पंद्रह प्रास हविष्यान्नछात्र प्रहण। पूर्णिमाके जाद् कृष्णपक्षकों प्रतिपदासे एक-एक प्स कय कते हुए अधात् १४, १३, १२ इस
संख्यामें प्रास ग्रहण करते हुए कृष्णपक्षकों चतुर्दशोकों एक ग्रास प्रहण। तदनन्तर अमाबरास््याकों पूर्ण उपवास । पुरः अमावास्याके बाद
शुक्ल प्रतिएदासे एक-एक ग्रास बदाकर १, २, ३ इस क्रममें दूसरी पूर्णिमाकों पंद्रह ग्रासे ग्रहण । इस प्रकार एक मासम यह त्रत पूर्ण
होता है।
३- प्राजाफत्यव्त-- यह व्रत बारह दिनका होता है। प्रथम ततोन दिन केवल दिनमें हचिष्या्न- ग्रहण । तत्पश्चात् तोच दिन केयल रातमें हविष्याप्र-
ग्रहण । सदनन्तर तीन दिन बिता मग जो मिल खव, उठतामाज् एक च्छः ग्रहण । अन्तिम गौन दि पूर्णरूपमें ठफ़्वास। ( मनू ११। २११)
४- पराकन्नरत- इस व्रते बारह दिनतक केवल हल ग्रहण करके रहा जाता है। (याज्ञ०स्मृति० प्राय७ स्सोक ३२०, मतु० १११ २१५)