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* पुराणं गारुडं वक्ष्ये साईं विष्णुकधाअयम् *
[ संक्षिप्त गरुडपुराणाडूः
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ही मैं आपका पूजन करता रहूँगा। हे विष्णो ! यदि मै आशिन
और कार्तिकमासके शुक्लपक्षे द्ादशोसे लेकर दूसरी
द्वदशौ तिथिके मध्य मर जाता हूँ तो मेरा यह व्रत भंग न हो।
इस प्रकार प्रार्थना करनेके पश्चात् प्रतः, मध्याह्न तथा
संध्याकालर्मे स्नान करके उपासक गन्धादिसे भगवान्
हरिका देवालयमें पूजन करे, किंतु ब्रतोकों शरोरमें उबटन
तथा सुगन्धित गन्धलेप आदि नहीं करना चाहिये।
द्वादशौ दिधि भगवान् हरिकी पूजा करके व्रती
ब्राह्मणको भोजन कराये। एक मासतक हरिका व्रत
करतेके पश्चात् व्रती पारणा करे। यदि व्रतधारी इस
अवधिके मध्य मूर्छित हो जाता है तो उसे दुश्धादिका
प्राशन कर लेना चाहिये; क्योकि दुग्धादिका पान करनेसे
ब्रत विनष्ट नहों होता। इस प्रकार मासद्रत करनेसे भुक्ति
और मुक्ति दोनों प्राप्त होती हैं। (अध्याय १२२)
हज क >>
भीष्मप्कन्रत
ब्रह्माजीने कहा--अब मैं कार्तिकमासमे होनेवाले
ख्तोंकों कहूँगा। इस सासमें स्नान करके द्रतोकों भगवान्
विष्णुको पूजा करनी चाहिये। व्रतों एक मासतक एकभक्त -
वरत कर, नकव्त कर, अयाचिततत्रत कर, दुग्ध, फल, शाक
आदिका आहार कर अथवा उपवास कर भगवान् विष्णुकी
पूजा करें। ऐसा करनेसे वह व्रती सभी पापोंसे मुक्त होकर
समस्ते कामनाओंके साध-साथ भगवान् हरिकों प्राप्त कर
लेता है।
भगवान् हरिका व्रत करना सदैव श्रेष्ठ है, किंतु सूर्यके
दक्षिणायनमें चले जानेपर यह व्रतं अधिक प्रशस्त होता है।
उसके आद इस व्रतका काल चातुर्पासमें त्रेयस्कर है।
तदनन्तरं इस ख्रतका उचित काल कार्तिकमास हैं। इसके
बाद भीष्मपञ्चकं इस ब्रतके लिये श्रेष्ठ समय है किंतु
कार्तिकमासके शुक्लपक्षका एकादज्ञों तिथि इस व्रतके
ज्ुभारम्भके लिये सर्वश्रेष्ठ काल होता है। अत: इसी तिथिसे
इस व्रतका शुभारम्भ करना चाहिये। उपासक इस दिन
प्रातः, मध्याह एवं सायंकालौन-इन तौनों सन्ध्याओंमें
स्नान कर यवादि पदार्थोंसे पितृणण आदिको नैत्यिक पूजा
करनेके पश्चात् भगवान् हरिका पूजन करे। वह मौन होकर
घृत, मधु, शर्करादि तथा पक्काव्य एवं जलसे हरिकों
मूर्तिको स्नान करये और कर्पूरादि सुगन्धित द्रव्यसे
श्रोहरिके शरोरका अनुलेपन करे ।
तदनन्तर ब्रत्ीको घृतसम्न्वित गुग्गुलसे पूर्णिमापर्यन्त
पाँच दिनोंतक श्रीहरिको धूप देना चाहिये और सुन्दर-सुन्दर
पक्वान्न तथा मिष्टान्नका नैयेच्च अर्पितकर “ ॐ नयो वासुदेवाय '
इस पन्त्रका एक सौ आठ बार जप करना चाहिये ।
तत्पश्चात् स्वाहायुक्त अधष्टाक्षर-मन्त्र (ॐ नमो
वासुदेवाय )- से घृतसहित चावल तथा तिलकी आहुति
श्रदान करनी चाहिये।
ब्रती पहले दिन कमलपुष्पसे भगवान् हरिके दोनों
चरणोंका पूजन करे । दूसरे दिन विल्वपत्रसे उनके जानु
( जंघा) -प्रदेशकौ पूजाकर तीस दिन गन्धे नाभिदेशकी
पूवा करे। चौथे दिन बिल्वपत्र तथा जवापुष्पसे उनके
स्कन्ध-भागका पूजन करके पाँचवें दिन मालतीके पुष्पाँसे
उनके शिरोभागका पूजन करना चाहिये । ब्रती भूमिपर ही
ज्ञयंन करे और उक्त पाँच दि्नौतक क्रमशः पहले दिन
गोमय, दूसरे दिन गोमूत्र, तौसे दिन दही, चौथे दिन दुध
और पांचवें दिन घृत-- इन चारों पदारथोमे निर्पित पञ्चगव्यका
प्राशन रत्रिमे कमे । ऐसा व्रत करनेवाला ब्रत भोग और
मोक्ष दोनोंका अधिकारौ हो जाता है।
कृष्ण एवं शुक्ल दोनों पक्षोंकी एकादशीका व्रत हमेशा
करना चाहिये । यह त्रत उस समस्त पापसमृहका विनाश
करता है, जो प्राणीको नरक देनेवाला है । यह व्रतीको सभी
अभीष्ट फल प्रदान करता है और अन्त समयमे उसे
विष्णुलोक भी दे देता है।
पहले दिन शुद्ध एकादशो, दूसरे दिन शुद्ध द्वादशों तथा
द्वादशीकी निशा (रात्रि)-के अन्तमें अर्थात् तौसरे दिन
त्रयोदशो हौ तो ऐसी एकादशौ तिधिमें सदा ओहरिका
संनिधान रहता है। यदि दशमो और एकादशो तिथि एक
हो दिन होतो है तो इसमें असुरोंका निवास रहता है। अतः
यह एकादशी व्रतके लिये उपयुक्त नहो मानी छतो ।
एकादशीकों उपवासकर द्वादशीमें पारणा करनी चाहिये।
सूतक (वंशमें किसोकों उत्पत्ति) और मृतक (वशे
किसोके मरण)-कौ स्थितिसे होनेवाले अज्ञौचकालमें भी
यह व्रत करना चाहिये।
है मुन! यदि चतुर्दशी और प्रतिपदा तिथि पूर्व तिथिसे