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4. 2024 24.

[१ अग्निपुराण [१

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आदि इक्कीस पद भी उसीके अन्तर्गत हैं।

"ॐ नमः शिवाय सर्वप्रभवे शिवाय ईशानमूध्ने | न होनेके लिये उनसे प्रार्थना करे । पिता-माताका

तत्पुरुषवक्त्राय अघोरहृदयाय यामदेवगुद्याय

सद्योजातमूर्तये ॐ नमो नमः गुह्यातिगुह्याय गोष्ठे

अनिधनाय सर्वयोगाधिकृताय सर्वयोगाधिपाय

ज्योतीरूपाय परमेश्वराय अचेतन अचेतन व्योमन्‌

व्योमन्‌।'- ये इक्कीस पद है ॥ १--५॥

अब रुद्रों और भुवनोका स्वरूप बताया जाता

है-- प्रमथ, वामदेव, सर्वदिवोद्धव, भवोद्धव, वज्रदेह,

प्रभु. धाता, क्रम, विक्रम, सुप्रभ, बुद्ध, प्रशान्तनामा,

ईशान, अक्षर, शिव, संशिव, ब्रु, अक्षय, शम्भु.

अदृष्टरूपनामा, रूपवर्धन, मनोन्मन, महावीर,

चित्राड़ तथा कल्याण-ये पचीस भुवन एवं रुद्र

जानने चाहिये ॥ ६--९॥

विद्याकलामें अघोर-मन्त्र है, "म' ओर “र'

बीज हैं, पूषा ओर हस्तिजिल्वा-दो नाड़ियाँ हैं,

व्यान और नाद--ये दो प्राणवायु हैं। एकमात्र रूप

ही विषय है। पैर और नेत्र दो इन्द्रियाँ हैं। शब्द,

स्पर्श तथा रूप--ये तीन गुण कहे गये हैं। सुषुप्ति

अवस्था है और रुद्रदेव कारण हैं। भुवन आदि

समस्त वस्तुओंको भावनाद्वारा विद्याके अन्तर्गत

देखे। इसके लिये संधान-मन्त्र है--' 3 हूं हैं

हां।' तत्पश्चात्‌ रक्तवर्णं एवं स्वस्तिकके चिहसे

अङ्कित त्रिकोणाकार मण्डलका चिन्तन करे। शिष्यके

वक्षमें ताडन, कलापाशका छेदन, शिष्यके हृदयमें

प्रवेश, उसके जीवचैतन्यका पाश-बन्धनसे वियोजन

तथा हृदयप्रदेशसे जीवचैतन्य एवं विद्याकलाका

आकर्षण और ग्रहण करे॥ १०--१३॥

जीवचैतन्यका अपने आत्मामें आरोपण करके

कलापाशका संग्रहण ` एवं कुण्डमें स्थापन भी

पूर्वोक्त पद्धतिसे करे। कारणरूप रद्रदेवताका

-पूजन आदि करके शिष्यके प्रति बन्धनकारी

आवाहन आदि करके शिशु (शिष्य)-के हदये

ताडन करे । पूर्वोक्त विधिके अनुसार पहले अस्त्र-

मन्त्रद्वारा हृदयमें प्रवेश करके जीवचैतन्यको कलापाशसे

विलग करे। फिर उसका आकर्षण एवं ग्रहण करके

अपने आत्मामें संयोजन करे। फिर वामा उद्धवमुद्राद्रारा

वागीश्वरीदेवीके गर्भे उसके स्थापित होनेकी

भावना करे । इसके बाद देह-सम्पादन करे । जन्म,

अधिकार, भोग, लय, स्रोतःशुद्धि, तत्त्वशुद्धि,

निःशेष मलकर्मादिके निवारण, पाश-बन्धनकी

निवृत्ति एवं निष्कृतिके हेतु स्वाहान्त अस्त्र-मन्त्रसे

सौ आहुतियाँ दे। तदनन्तर अस्त्र-मन्त्रसे पाश-

बन्धनको शिथिल करना, मलशक्तिका तिरोधान

करना, कलापाशका छेदन, मर्दन, वर्तुलीकरण,

दाह, अङ्कुराभाव-सम्पादन तथा प्रायश्चित्त-कर्म

पूर्वोक्त रीतिसे करे । इसके बाद रुद्रदेवका आवाहन,

पूजन एवं रूप और गन्धका समर्पण करे । उसके

लिये मन्त्रे इस प्रकार है-' ॐ हां रूपगन्धौ

शुल्कं रद्र गृहाण स्वाहा ।' ॥ १४-१९॥

शंकरजीकी आज्ञा सुनाकर कारणस्वरूप रुद्रदेवका

विसर्जन करें। इसके बाद जीवचैतन्यका आत्मामें

स्थापन करके उसे पाशसूत्रमें निवेशित करे। फिर

जलबिन्दु-स्वरूप उस चैतन्यका शिष्यके सिरपर

न्यास करके माता-पिताका विसर्जन करे। तत्पश्चात्‌

समस्त विधिकी पूर्ति करनेवाली पूर्णाहुतिका

विधिवत्‌ हवन करे॥ २०-२१॥

विद्यामें ताडन आदि कार्य पूर्वोक्त विधिसे ही

करना चाहिये। अन्तर इतना ही है कि उसमें सर्वत्र

अपने बीजका प्रयोग होगा। यह सब विधान पूर्ण

करनेसे विद्याकलाका शोधन होता है॥ २२॥

इस प्रकार आदि आखेय महाएराणमें “निर्वाण-दीक्षाके' अन्तर्गत विद्याकलाक शोधन”

नामक छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥<६ ॥

ने

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