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२८४ | । [ मत्स्य पुराण

बसिष्ठमित्राधरुणों कुण्डिनश्च महातपाः । १६

परस्परमवेवाह्या ऋषयः परिकीतिताः ।

शिवकर्णो वयश्चेब यादपलज्च तथैव च । १७

व्यार्षेयोऽभिमतश्चेषां सर्वेषां प्रवरस्तथा ।

जातूकण्तों वसिष्ठश्च तथैवात्रिश्च प्राथिब ! ।

परस्परमबेवाह्या ऋषयः परिकीर्तिता: । १८

वसिष्ठवंशेऽथिहिवा मयेते ` ऋषि प्रधानाः सततं द्विजेन्द्राः ।

येषां तु नाम्ना परिकीत्तितेन षापं समग्र पुरूषो जहाति ।१६

माध्यन्दिन, माक्षतप पैप्पलादि, व्रिचक्षुष, अंश्वड्भरायन, ` संवल्क,

कुण्डिन हे तरोलम ! इन सबके परम शुर प्रवर व्यार्घय अभिमत हैं ।

बसिष्ठ, मित्रा बरुण, महातपा, कुण्डिक्त)ये ऋषि बृन्द परस्परः में अर्वे-

बाह्य हैं-ऐसा कीत्तित किया गया है । शिवकर्ण , पय, पादप, इन, सब

क। व्यार्णाय प्रवर अभिमत है । हे पार्थिव! जातुकर्ण्य वसिष्ठ तथा

अत्रिज ऋषि बुन्द आपस में विवाह न करने के योग्य ही कहे गये हैं

।१५-१८। मैंने आपको बरिष्ठ के बंश में ऋषियों में प्रधान ओर निर-

न्तर द्विजेन्द्र आपको कह दिये गये हें जिनके परम शुभनामों के परि-

कीर्तन से पुरुष अपने सम्पूर्ण पापों का त्याग कर दिया करता हैं ।

। १ ६।

द ३-ऋकियों के आख्यान. में निभि का वर्णन

वसिष्ठस्तु महातेजा निमेः पृवपुरोहितः ।

बभव पार्थिवश्र ष्ठ यज्ञास्तस्य समन्ततः ।१

श्रान्तात्म पाथेवश्रष्ठ ! विशश्राम तदा गुरु: ।

तं गत्वा पार्थिवश्रेष्ठो निरिर्वचनंश्नवीच्‌ ।२

भगवन्यष्टुमिच्छामि तन्म याजयमांत्तिरस्‌ ।

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