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श्रीयिष्णुपुराण

[( आ* १०

अैवर्गिकांस्यजेत्सर्वानारम्भानवनीपते.. ।

मित्रादिषु समो मैत्रस्समस्तेष्लेव जन्तुषु ॥ २६

जरायुजाण्डजादीनौं वाद्नःकायकर्मभिः ।

युक्तः कुर्वीति न द्रोहं सर्वस्वा वर्जयेत्‌ ।। २७

एकरात्रस्थितिर््रामि पञ्चरात्रस्थितिः पुरे ।

तथा तिष्लेद्यथाप्रीतिद्ेषो वा नास्य जायते ॥ २८

प्राणयात्रानिपित्तं च व्यङ्गारे भुक्तवज्ने ।

काले प्रशस्तवर्णानां भिक्षार्थं पिद गृहान्‌ ॥ २९

कामः क्रोधस्तथा दर्पमोहत्लोभादयश्न ये ।

तस्तु सर्वान्परित्यज्य परिन्राड्‌ निर्ममो भवेत्‌ ॥ ३०

अभवं सर्वभूतेभ्यो दत्वा यश्चरते मुनिः ।

तस्यापि सर्वभूतेभ्यो न भर्य विद्यते क्रचित्‌ ॥ ३१

शारीरमभ्रिं स्वमुखे जुहोति ।

विप्रस्तु भैक्ष्योपहितैहविर्भि-

श्विताप्िकानां व्रजति स्म लोकान्‌ ॥ ३२

मोक्षाश्रमं यश्चरते यथोक्तं

त्यागकर्‌ तथा पात्सर्यको छोढ़कर चतुर्थं आश्रमे प्रवे:

करे ॥ २५॥ हे पृथिवीपते ! भिक्षुक्रो उचित है कि अर्थ, धर्म

और कामकूप श्रिवगसम्बन्धी समस्त कर्मो छोड़ २, सतु-

सित्रादिगें समान भाव रखे और सभी जीवॉका सुद्‌

हो ॥ २६ ॥ निरन्तर समाहित रहकर जरायुज, अष्डज और

स्वदेज आदि समस्त जीवोंसे मन, ऋणो अथया कर्मद्वारा कभो

द्रोह न करे तथा सब प्रकरी आसक्तियॉक्ो त्याग

दे ॥ २७ ॥ ग्रारपै एक रात और पुरये पाँच रात्रितक रहे तथा

इतने दिन भी तो इस प्रकार रहे जिससे किसीसे प्रेम अथवा द्वेष

न हो॥ २८ ॥ जिस समय चरमे अप्नि शान्त द्ये जाय और

स्त्रेण भोजन कर चुके उस समय प्राणरक्षाके लिये उत्तम

व्णेमिं भिक्षाके लिये जाय ॥ २९ ॥ परित्राजकको चाहिये कि

काम, क्रोध तथा दर्प, छोभ और मोह आदि समस्त दुर्गुणोंको

छोड़कर ममताशून्य होकर रहें ॥ ३० ॥ जो मुनि समस्त

प्राणिर्योक््े अभयदान देकर विचरता है उसको भी किसीसे

कभी कोई भय नहीं होता ॥ ३१ ॥ जो ब्राह्मण चतुर्थ आश्रममें

अपने झरीरमें स्थित प्राणादिसहित जठग्रप्निके उद्देश्यसे अपने

मुखे भिक्षान्ररूप हविसे हवन करता है, वह ऐसा अग्निन

करके अग्रिहोत्रियोंके स्जेकॉको प्राप्त हो जाता है ॥ ३२ ॥ जो

ब्राह्मण [ब्रह्मससे भिन्न सभी मिथ्या है, सम्पूर्ण जगत्‌

भगवानका ही संकल्प है--ऐसे] बुद्धियोगसे युक्त होकर,

यथाविधि आचरण करता हुआ इस मोक्षाश्रमका पवित्रता

और सुखपूर्वक आचरण करता है, बह निरिन्धन अप्रिके समान

इन्त होता है और अन्तये ब्रह्मलोक परार करता है ॥ ३३ ॥

न्स 4 ----

इति श्रीविष्णुपुराणे तुतीयेंड्शे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥

दसवाँ अध्याय

जातकर्म, नामकरण और बिवाह-संस्कारकी विधि

सगर उवाच

कथितं चातुराश्रम्य चातुर्वण्यक्रियास्तथा ।

पंख: क्रियापहं श्रोतुमिच्छामि द्विजसत्तम ॥

नित्यनैमित्तिका: काप्याः क्रियाः पुंसामहोषतः ।

समाख्याहि भृगुभ्रेष्ट सर्वज्ञो हासि मे यतः ॥ २

ओव उवाच

यदेतदुक्तं भवता नित्यनैमित्तिकाश्रयम्‌ ।

तदहं कथयिष्यामि शृणुप्रैकमना मम ॥

॥:

दे

सगर बोले-- हे द्विजश्रेष्ठ आपने चारों आश्रम

और चारों बणेक्रि कर्मोंक्त्र वर्णन किया । अब मै आपके

द्वारा मनुष्योंके (घोड़ा संस्काररूप) कर्मोंक्तो सुनना

चाहता हूँ। ६ ॥ हे भुगुश्रेष्ठ मेय विचार है कि आप

| सर्वश हैं। अतएब आप मनुष्योंके नित्य-नैमित्तिक और

काम्य आदि सत्र प्रकारके कममौका निरूपण कीजिये ॥-२-॥

ओर्व बोले--हे राजन्‌ ! आपने जो नित्य-

नैंसेत्तिक आदि क्रियाकलापके लिषयपें पूछा सो मैं सबका

वर्णन करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो ॥ ३॥

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