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श्रीयिष्णुपुराण
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अैवर्गिकांस्यजेत्सर्वानारम्भानवनीपते.. ।
मित्रादिषु समो मैत्रस्समस्तेष्लेव जन्तुषु ॥ २६
जरायुजाण्डजादीनौं वाद्नःकायकर्मभिः ।
युक्तः कुर्वीति न द्रोहं सर्वस्वा वर्जयेत् ।। २७
एकरात्रस्थितिर््रामि पञ्चरात्रस्थितिः पुरे ।
तथा तिष्लेद्यथाप्रीतिद्ेषो वा नास्य जायते ॥ २८
प्राणयात्रानिपित्तं च व्यङ्गारे भुक्तवज्ने ।
काले प्रशस्तवर्णानां भिक्षार्थं पिद गृहान् ॥ २९
कामः क्रोधस्तथा दर्पमोहत्लोभादयश्न ये ।
तस्तु सर्वान्परित्यज्य परिन्राड् निर्ममो भवेत् ॥ ३०
अभवं सर्वभूतेभ्यो दत्वा यश्चरते मुनिः ।
तस्यापि सर्वभूतेभ्यो न भर्य विद्यते क्रचित् ॥ ३१
शारीरमभ्रिं स्वमुखे जुहोति ।
विप्रस्तु भैक्ष्योपहितैहविर्भि-
श्विताप्िकानां व्रजति स्म लोकान् ॥ ३२
मोक्षाश्रमं यश्चरते यथोक्तं
त्यागकर् तथा पात्सर्यको छोढ़कर चतुर्थं आश्रमे प्रवे:
करे ॥ २५॥ हे पृथिवीपते ! भिक्षुक्रो उचित है कि अर्थ, धर्म
और कामकूप श्रिवगसम्बन्धी समस्त कर्मो छोड़ २, सतु-
सित्रादिगें समान भाव रखे और सभी जीवॉका सुद्
हो ॥ २६ ॥ निरन्तर समाहित रहकर जरायुज, अष्डज और
स्वदेज आदि समस्त जीवोंसे मन, ऋणो अथया कर्मद्वारा कभो
द्रोह न करे तथा सब प्रकरी आसक्तियॉक्ो त्याग
दे ॥ २७ ॥ ग्रारपै एक रात और पुरये पाँच रात्रितक रहे तथा
इतने दिन भी तो इस प्रकार रहे जिससे किसीसे प्रेम अथवा द्वेष
न हो॥ २८ ॥ जिस समय चरमे अप्नि शान्त द्ये जाय और
स्त्रेण भोजन कर चुके उस समय प्राणरक्षाके लिये उत्तम
व्णेमिं भिक्षाके लिये जाय ॥ २९ ॥ परित्राजकको चाहिये कि
काम, क्रोध तथा दर्प, छोभ और मोह आदि समस्त दुर्गुणोंको
छोड़कर ममताशून्य होकर रहें ॥ ३० ॥ जो मुनि समस्त
प्राणिर्योक््े अभयदान देकर विचरता है उसको भी किसीसे
कभी कोई भय नहीं होता ॥ ३१ ॥ जो ब्राह्मण चतुर्थ आश्रममें
अपने झरीरमें स्थित प्राणादिसहित जठग्रप्निके उद्देश्यसे अपने
मुखे भिक्षान्ररूप हविसे हवन करता है, वह ऐसा अग्निन
करके अग्रिहोत्रियोंके स्जेकॉको प्राप्त हो जाता है ॥ ३२ ॥ जो
ब्राह्मण [ब्रह्मससे भिन्न सभी मिथ्या है, सम्पूर्ण जगत्
भगवानका ही संकल्प है--ऐसे] बुद्धियोगसे युक्त होकर,
यथाविधि आचरण करता हुआ इस मोक्षाश्रमका पवित्रता
और सुखपूर्वक आचरण करता है, बह निरिन्धन अप्रिके समान
इन्त होता है और अन्तये ब्रह्मलोक परार करता है ॥ ३३ ॥
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इति श्रीविष्णुपुराणे तुतीयेंड्शे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
दसवाँ अध्याय
जातकर्म, नामकरण और बिवाह-संस्कारकी विधि
सगर उवाच
कथितं चातुराश्रम्य चातुर्वण्यक्रियास्तथा ।
पंख: क्रियापहं श्रोतुमिच्छामि द्विजसत्तम ॥
नित्यनैमित्तिका: काप्याः क्रियाः पुंसामहोषतः ।
समाख्याहि भृगुभ्रेष्ट सर्वज्ञो हासि मे यतः ॥ २
ओव उवाच
यदेतदुक्तं भवता नित्यनैमित्तिकाश्रयम् ।
तदहं कथयिष्यामि शृणुप्रैकमना मम ॥
॥:
दे
सगर बोले-- हे द्विजश्रेष्ठ आपने चारों आश्रम
और चारों बणेक्रि कर्मोंक्त्र वर्णन किया । अब मै आपके
द्वारा मनुष्योंके (घोड़ा संस्काररूप) कर्मोंक्तो सुनना
चाहता हूँ। ६ ॥ हे भुगुश्रेष्ठ मेय विचार है कि आप
| सर्वश हैं। अतएब आप मनुष्योंके नित्य-नैमित्तिक और
काम्य आदि सत्र प्रकारके कममौका निरूपण कीजिये ॥-२-॥
ओर्व बोले--हे राजन् ! आपने जो नित्य-
नैंसेत्तिक आदि क्रियाकलापके लिषयपें पूछा सो मैं सबका
वर्णन करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो ॥ ३॥