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इत्युक्तो भरतस्तत्र भरद्वाजेन धीमता ।

[ अध्याय ४८

बुद्धिमात्‌ भरद्वाजजीके यों कहनेपर भरतजों यमुना

उत्तीर्य यमुनां यातश्चित्रकूटं महानगम्‌॥ १४३ | पार करके महान्‌ पर्वत चित्रकूटपर गये। वहाँ खड़े

स्थितोऽसौ दृष्टवान्दूरात्सधूलीं चोत्तरां दिशम्‌।

रामाय क्रथयित्याऽऽस तदादेशाततु लक्ष्मण: ॥ १४४

वृक्षमारुह्य मेधावी वीक्षमाणः प्रयत्रत:।

स ततो दृष्टवान्‌ हष्टामायान्तीं महतीं चमूम्‌॥ १४५

इस्त्यश्चरथसंयुक्तां दृष्टा राममथाब्रवीत्‌

हे भ्रातस्त्वं महाबाहो सीतापाश्चं स्थिरो भव ॥ १४६

भूषोऽस्ति बलवान्‌ कश्चिद्धस्तयश्चरथपत्तिभिः ।

इत्याकर्ण्यं यचस्तस्य लक्ष्मणस्य महात्पनः ॥ १४७

रामस्तमन्नवीद्रीरो वीरं सत्यपराक्रपः।

प्रायेण भरतोऽस्याकं द्रष्टुमायाति लक्ष्मण ॥ १४८

इत्येवं वदतस्तस्य रामस्य विदितात्मनः।

आरात्संस्थाप्य सेनां तां भरतो विनयान्वितः ॥ ९४९

ब्राह्मणैम॑न्त्रिभि: सार्धं रुदन्नागत्य पादयोः।

गायस्य निपपाताथ वैदेह्या लक्ष्मणस्य च॥ १५०

मन्त्रिणो मातृवगं श्च स्निग्धबन्धुसुहजनाः ।

परिवार्यं ततो रापं रुरुदुः शोककातराः ॥ १५१

स्वयतिं पिततं ज्ञात्वा ततो रामो महापतिः।

लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा वैदेह्याथ समन्वितः ॥ १५२

स्त्रात्वा पलापहे तीर्थे दत्वा च सलिलाञ्जलिप्‌।

मात्रादीनभिवाद्याथ रामो दुःखसपन्वितः॥ १५३

उवाच भरतं राजन्‌ दुःखेन महतान्वितम्‌।

अयोध्यां गच्छ भरत इतः शीघ्रं महामते ॥ १५४

राज्ञा विहीनां नगरीं अनाथां परिपालय ।

इत्युक्तो भरतः प्राह रामं राजीवलोचनम्‌ ॥ १५५

त्वामृते पुरुषव्याघ्र न यास्येऽहमितो ध्रुवम्‌।

यत्र त्वं तत्र यास्यापि वैदेही लक्ष्मणो यधा ॥ १५६

हुए लक्ष्मणजीने दूरसे उत्तर दिशे धूल उड़तो

देख श्रीरामचन्द्रजीकों सूचित किया। फिर उनकी आज्ञासे

वृक्षपर चढ़कर बुद्धिमान्‌ लक्ष्मणजी प्रयन्नपूर्वक उधर

देखने लगे। तब उन्हें वहाँ बहुत बड़ी सेना आतो

दिखायी दी, जो हर्ष एवं उत्साहसे भरी जान पड़ती थो।

हाथी, घोड़े और रथोंसे युछ उस सेनाकों देखकर

लक्ष्मणजी श्रौरामसे बोले--' भैया! तुम सीताके पास

स्थिरतापूर्वक बैठे रष्ठो । महाब्राहो! कोई महाबली राजा

हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिकोंसे युक्त चतुरक्लिणों

सेनाके साथ आ रहा है '॥ १४३-१४६"/॥

पार्या लक्ष्यणके ऐसे वचन सुनकर सत्यपराक्रमी

खोरवर श्रोराम अपने उस योर भ्रातासे जोले--' लक्ष्मण!

मुझे तो प्रायः यहो जान पड़ता हैं कि भरत हो हम लोगोंसे

मिलनेके लिये आ रहे हैं।' विदितात्मा भगवान्‌ श्रीराम

जिस समय यो कह रहे थे, उसी समय विनयशील भरतजी

यहाँ पहुँचे और सेनाको कुछ दूरौपर ठहराकर स्वयं ब्राह्मणों

और मन्त्रियॉंक साथ निकट आ, सोवा और लक्ष्मणसहित

भगवान्‌ श्रोरामके चरणोंपर रोते हुए गिर पड़े। फिर मन्त्रौ,

आताएँ, स्नेही बन्धु तथा मित्रगण श्रौरमको चात ओर्से

घेरकर शोकमणन हो रोने लगे॥ १४७-१५१॥

तदनन्तरं महामति श्रीरामने अपने पिताक स्वर्गगामी

होनेका समाचार पाकर भ्राता लक्ष्मण और जानकोके

साध वहाँके पापनाशक तोर्थमें स्नान करके जलाञ्जलि

दी॥ राजन्‌ ! फिर माता आदि गुरुडननोको प्रणाम करके

रामचद्जी दुःखो हो अत्यन्त खेदमें पड़े हुए भरतसे

बोले-' महामते भरत! तुम अब यहाँसे शीप्र अयोध्याको

चले जाओ और राजासे होन हुई उस अनाथ नगरीका

पालन करों।' उनके यों कहतेपर भरतने

कमललोचन रामसे कहा--“पुरुषश्रेष्ठ यह निश्चय है

कि मैं आपको साथ लिये थिना यहाँसे नहीं जाऊँगा।

जहाँ आप जायँगे, वहाँ सोता-लक्ष्मणको भाँति मैं भी

चलूँगा' ॥ १७२--१५६ #

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