मं० १ सु १२२ ९८७
करते हैं। आपके साथां धनदाता पृषादेव की भी प्रार्थना करते है । अग्निदेव द्वारा प्रदत्त सम्पदाओं के लिए भी
प्रार्थना करते हैं ॥५ ॥
१३७६, श्रुतं मे मित्रावरुणा हवेमोत श्रुत सदने विश्वतः सीम्।
श्रोतु नः श्रोतुरातिः सुश्रोतुः सुक्षेत्रा सिन्धुरद्धिः ॥६ ॥
है पित्र ओर वकुणदेव ! आप दोनो हमारा निवेदन सुनें तथा यज्ञ मण्डप में चारों ओर से उच्चारित
प्रार्थना को भी सुने । सुविख्यात्, दानशील जलवर्षक देव हमारी प्रार्थना को सुनकर जलराशि से हमारे खेतों
को सिंचित करें ॥६ ॥
१३७७ स्तुषे सा वां वरुण मित्र रातिर्गवां शता पृक्षयामेषु पत्र ।
श्रुतरथे प्रियरथे दधानाः सद्यः पुष्टं निरुन्धानासो अग्मन् ॥७ ॥
हे वरुण और मित्र देवो ! हम आपकी प्रार्थना करते हैं । जहाँ अश्व तीव गति से चलाये जाते हैं, ऐसे संग्राम
में शूरवीर हो असंख्य गौओं रूपी धन को उपलब्ध करते हैं। आप दोनों उस विख्यात एवं अपने प्रिय रथ में
बैठकर शोध्र यहाँ आकर हमें पुष्ट करें ॥७ ॥
१३७८. अस्य स्तुषे महिमघस्य राधः सचा सनेम नहुषः सुवीरा:।
जनो यः पत्रेभ्यो वाजिनीवानश्वावतो रथिनो महं सूरिः ॥८ ॥
जो सामर््यवान् मनुष्य घोड़ों और रथों से सुसज्जित योद्धाओं को हमारे संरक्षणार्थं प्रेरित करते है । ऐसे
महान् वैभवशाली मनुष्यों का धन सभौ जनों द्वारा सराहा जाता है। श्रेष्ठ शौर्यवान् हम सभी मनुष्य एक
साथ संगठित हों ॥८ ॥
१३७९. जनो यो मित्रावरुणावभिश्चगपो न वां सुनोत्यक्ष्णयाध्रुक् ।
स्वयं स यक्ष्मं हृदये नि धत्त आप यदी होत्राभिऋतावा ॥९ ॥
हे मित्र और वरुणदेवो ! जो मनुष्य आपसे निष्कारण द्वेष करते है, ओ सोमरस निष्पादित करने से वंचित हैं
तथा यज्ञीय भावना से रहित हो कुमार्ग पर चलते हैं, वे अनेक प्रकार के मानसिक और हृदय सम्बन्धी रोगों से
ग्रसित हो जाते हैं। लेकिन जो मनुष्य सत्यमार्गं पर चलते हुए मनो द्वारा यज्ञ सम्पन्न करते हैं, वे सदैव आपकी
कृपा को प्राप्त करते हैं ॥९ ॥
१३८०. स व्राधतो नहुषो दंसुजूतः शर्धस्तरो नरां गूर्तश्रवाः ।
विसुष्टरातिर्याति बाव्यहसुतत्वा विश्वासु पृत्सु सदमिच्छूरः ॥१० ॥
हे देवो ! यजन करने वाले साधक अश्च से युक्त होकर, शत्रुओं के भयंकर विनाशकर्त्ता, अति तेजस्वी, याचको
के प्रति उदारतायुक्त तथा महान् बलशाली होते है। वे सभी युद्धो मे अति सामर्थ्यवान् शत्रुओं का भी विध्वंस
करते हुए अग्रसर होते हैं ॥१० ॥ '
१३८१. अध ग्मन्ता नहुषो हवं सूरेः श्रोता राजानो अमृतस्य मन्द्रः ।
नभोजुवो यन्निरवस्य राधः प्रशस्तये महिना रथवते ॥११ ॥
है आकाशन्यापी देवो ! आप अपनी सामर्थ्य से, अकल्याणकारी दुष्टौ की सम्पदा को, प्रशंसा के योग्व श्रेष्ठ
रथधारी शूरवीरो के लिए हस्तान्तरित करते हैं । तेजवान् हर्षदायक और अमृत स्वरूप यज्ञ की ओर प्रेरित करने
वाले हे देवो ! मनुष्यों की स्तुतियों को सुनकर आप यहाँ पधारे ॥११ ॥