सुष्टिखण्ड ]
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हूँ; अतः आप मुझे यह बात बताइये ।'
पार्वती देवीने कहा--नारद ! युवती स्त्रियॉका
चित्त सदा पुरुषोंमें ही लगा रहता है, इसमें तनिक भी
सन्देह नहीं है। नारी घीसे भरे हुए घड़ेके समान है और
पुरुष दहकते हुए अगारेके समान; इसलिये घी और
अग्निको एक स्थानपर नहीं रखना चाहिये।* जैसे
मतवाले हाथीको महावत अङ्कुर और मुगदरकी
सहायतासे अपने वदाम करता है, उसी प्रकार स्ियोका
रक्षक उन्हें दण्डके बलसे ही कायूमें रख सकता है।
बचपनमें पिता, जवानीमें पति और बुढ़ापेमें पुत्र नारीकी
रक्षा करता है; उसे कभी स्वतन्त्रता नहीं देनी चाहिये।प॑
सुन्दरी ख्रीको यदि उसकी इच्छाके अनुसार स्वतन्त्र छोड़
दिया जाय तो पर-पुरुषकी प्रार्थनासे अधीर होकर वह
उसके आदेशके अनुसार व्यभिचारमे प्रवृत्त हो जाती है ।
जैसे तैयार की हुई रसोईपर दृष्टि न रखनेसे उसपर कौए
और कुत्ते अधिकार जमा लेते हैं, उसी प्रकार युवती नारी
स्वच्छन्द होनेपर व्यभिचारिणी हो जाती है। फिर उस
कुलटाके संसर्गसे सारा कुल दूषित हो जाता है। पराये
बीजसे उत्पन्न होनेवाल्त्र मनुष्य वर्णसंकर कहल्तता है ।३:
सदाचारिणी स्त्री पितुकुल और पतिकुल--दोनों कुलछोंका
सम्मान बढ़ाती हुई उन्हें कायम रखती है। साध्वी नारी
अपने कुछका उद्धार करती और दुराचारिणी उसे नस्कमें
गिराती है। कहते हैं--संसारमें स्रीके ही अधीन स्वर्ग,
कुल, कलङ्क, यदा, अपयदा, पुत्र, पुत्री और मित्र
आदिकी स्थिति है। इसलिये विद्वान् पुरुष सन्तानकी
इच्छासे विवाह करे । जो पापी पुरुष मोहवद्रा किसी
साध्वी स्वीक दूषित करके छोड़ देता है, वह उस खीकी
हत्याका पाप भोगता हुआ नस्क गिरता है । जो परायी
» पतिद्रत्ा ब्राह्मणीका उपाख्यान, महिमा और कन्यादानका फलक +
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स्रीके साथ बलात्कार करता अथवा उसे घनका लालच
देकर फँसाता है, वह इस संसारम खी-हत्यारा कहलाता
है और मरनेके पश्चात् घोर नरकमें पड़ता है। परायी
स्त्रीका अपहरण करके मनुष्य चाण्डाल-कुलमें जन्म
लेता है। इसी प्रकार पतिके साथ वञ्चना करनेवाली
व्यभिचारिणी खी चिरकालतक नरक भोगकर कौएकी
योनिमे जन्म लेती है ओर उच्छिष्ट एव दुर्गधयुक्त पदार्थ
खा-खाकर जीवन बिताती है । तदनन्तर, मनुष्य-योनिमें
जन्म लेकर विधवा होती है। जो माता, गुरुपत्री,
ब्राह्मणी, राजाकी रानी या दूसरी किसी प्रभु-पल्नीके साध
समागम करता है, वह अक्षय नरकमे गिरता है । बहिन,
भानजेकी स्त्री, बेटी, बेटेकी बहू, चाची, मामी, बुआ
तथा मौसी आदि अन्यान्य स्त्ियोंके साथ समागम
करनेपर भी कभी नरकसे उद्धार नहीं होता । यही नहीं,
उसे ब्रह्महत्याका पाप भी लगता है तथा बह अधा, गगा
और बहरा होकर निरन्तर नीचे गिरता जाता है; उस
अधःपतनसे उसका कभी बचाव नहीं हो पाता ।
ग्राह्मणने पूछा--भगवन् ! ऐसा पाप करके
मनुष्यका उससे किस प्रकार उद्धार हो सकता है ?
श्रीभगवानने कहा--उपर्यक्त स्तियोके साथ
समागम करनेवाला पुरुष लोहेकी स्त्री-प्रतिमा बनवाकर
उसे आगमे खूब तपाये; फिर उसका गाढ़ आलिङ्गन
करके प्राण त्याग दे और शुद्ध होकर परल्ओेककी यात्रा
करे। जो मनुष्य गृहस्थाश्रमका परित्याग करके मुझमें
मन लगाता है और प्रतिदिन मेरे *गोविन्द' नामका स्मरण
करता है, उसके सब पापॉका नाश हो जाता है। उसके
ड्वारा की हुई हजारों ब्रहमहत्या, सौ बार किया हुआ
गुरुपल्ली-समागम, लाख बार किया हुआ पैष्टी मदिराका
+ घृतकुम्मसमा नरी तज्लाड्रारसमः पुमान् । तस्माद् घृते च वद्वि च ह्वोकस्थाने न धारयेत् ॥
(४९।२१)
¶ प्ति रक्षति कौमारे भर्तौ रक्षति यौवने । पुत्राश्च स्याविरे भावे > सखी स्वातन्त्यमर्हति ॥
(४९।२३)
‡ अरक्षणाच्चथा पाक: श्रकाकवशगो वसेत् । तथैव युवती करी स्वच्छन्दादुष्टतो व्रजेत् ॥
पुनरेव कुल दुष्टे तस्याः संसर्गतो भवेत् । परबीजे करो ऋतः स॒ च स्वादर्णसंकर: ॥
(४९ । २५-२६)