Home
← पिछला
अगला →

१३ अथर्ववेद संहिता भाग-२

४३६२. सहल्रणीथाः कवयो ये गोपायन्ति सूर्यम्‌ ।

ऋषीन्‌ तपस्वतो यम तपोजाँ अपि गच्छतात्‌ ॥१८ ॥

जिन पूर्वज मनीषियों ने जीवन की हजारों श्रेष्ठ विधाओं को विकसित किया । जो सूर्य की शक्तियो के

संरक्षक हैं ओर कप से उत्पन्न जिन पितरो ने तपस्वौ जोव जिया, हे मृतात्मन्‌ ! आय उन्ही के समीप पहुँचें ॥१८ ॥

४२६३. स्योनास्मै भव पृथिव्यनृक्षरा निवेशनी । यच्छास्मै शर्म सप्रथाः ॥१९ ॥

हे पृथिवी देवि आप इसके निमित्त सुखकारिणी, दुःख-कष्टों से रहित, प्रवेश करने योग्य और विस्तारयुक्त

होकर शान्ति प्रदान करने वाली हों ॥१९ ॥

४३६४. असंबाधे पृथिव्या उरौ लोके नि धीयस्व ।

स्वथा या्चकृषे जीवन्‌ तास्ते सन्तु मधुश्चुतः ॥२० ॥

हे मुमूर्षो ! आपने यज्ञवेदी रूप विस्तृत दर्शनीय स्थल पर स्थित होकर सर्वप्रथम पितरो और देवों के लिए

जिन स्वधायुक्त आहुतियों को समर्पित किया था, वे आपको मधु आदि रसो के प्रवाहरूप में उपलब्ध हों ॥२० ॥

४३६५. हयामि ते मनसा मन इहेमान्‌ गृहाँ उप जुजुषाण एटि ।

सं गच्छस्व पितृथिः सं यमेन स्योनास्त्वा वाता उप वान्तु शग्माः ॥२९॥

हे प्रेतपुुष ! अपने मन से आपके मन को हम बुलाते हैं । (जहां पितृकर्म किया जाता है) आप उन गृहो में

आगमन करें । (संस्कार क्रिया के पश्चात्‌) पिता, पितापह और प्रपितामह के साथ (सपिण्डीकरण के द्वारा) संयुक्त

होकर यमराज के समीप प्रस्थान करें, सुखप्रद वायुदेव आपके लिए बहते रहें ॥२१ ॥

४३६६. उत्‌ त्वा वहन्तु मरुत उदवाहा उदप्रुत:।

अजेन कृण्वन्तः शीतं वर्षेणोक्षन्तु बालिति ॥२२ ॥

हे प्रेत पुरुष मरुद्गण आपको अन्तरिश्च मे धारण करे अथवा वायुदेव आपको ऊपरी लोक में पहुँचाएँ ।

जल के धारणकर्ता और वर्षक मेघ गर्जना करते हुए समीपस्थ अज के साथ तुम्हें वृष्टिबल से सिड्चित करें ॥२२ ॥

४२६७. उदह्मायुरायुषे क्रत्वे दक्षाय जीवसे ।

स्वान्‌ गच्छतु ते मनो अथा पितृरुप द्रव ॥२३॥ ति

(है पितरो !) हम आपको दीर्घायु, प्राण, अपान तथा जीवन के लिए आमंत्रित करते हैं । तुम्हारा मन संस्कार

क्रिया से प्रकर हुए नये शरीर को उपलब्ध करे । इसके बाद आप वसुरूप पितरगणो के समीप पहुँचें ॥२३ ॥

४३६८. मा ते मनो मासोमाङ्गानां मा रसस्य ते । मा ते हास्त तन्वः कि चनेह ॥२४ ॥

(हे पितरो ) इस संसार में वास करते हुए तुम्हारा मन तुम्हें त्याग कर न जाए । तुम्हारे प्राण का कोई भी अंश

क्षीण न हो और तुम्हारे हाथ- पैर आदि में कोई विकार उत्पन्न न हो । आपकी देह के रुधिर आदि रस भी किसी

मात्रा में देह का परित्याग न करें । इस लोक में कोई भी शारीरिक अंग आपसे पृथक्‌ न हों ॥२४ ॥

४३६९. मा त्वा वृक्षः सं बाधिष्ट मा देवी पृथिवी मही ।

लोकं पितृषु वित्त्वैधस्व यमराजसु ॥२५ ॥

(है पितर पुरुष जिस पेड़ के नीचे आप आराम करें , वह पेड़ आपके लिए बाधक न हो । आप जिस दिव्य

गुण सप्पन्न पृथ्वी का आश्रय लें, वह भी आपको व्ययित न करे । यमदेव जिनके राजा है , उन पितरजनों में स्थान

प्राप्त करके आप वृद्धि को प्राप्त करें ॥२५ ॥

← पिछला
अगला →