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काण्ड-१८ सूक्त-२ १२

४३५५. अति द्रव श्वानौ सारमेयौ चतुरक्षौ शबलौ साधुना पथा ।

अधा पितृन््सुविदत्रां अपीहि यमेन ये सधमादं मदन्ति ॥९९॥

हे मृतात्मा ! चार नेत्रो वाले. अद्भुत स्वरूप वाले, जो ये दो सारमेय (सरमा के पुत्र अथवा साध रमण करने

वाले) श्वान हैं, इनके सान्निध्य मे आप गमन करें । तदनन्तर जो पितरगण यम के साथ सदैव हर्षित रहते हैं, उन

विशिष्ट ज्ञानी पितरो का सान्निध्य भो आप प्राप्त करें ॥११ ॥

[सारपेय श्वान का अर्थ यहाँ सरपा से उत्पन्न कुत्ते करना असंयत लगता है । साथ रमण करने वाले या शीघ्र गमनशील

अर्थ यहाँ सटीक बैठता है । मनुष्य के साथ रहने वाले तथा लोकात्तरों तक साथ जाने वाले चित्रगुप्त के दो दूतों-गुप्त संस्कारों के

रूप में इन्हें देखा जा सकता है । यह चार अक्षि-चार भाग (मन्‌ बुद्धि चित्त एवं अहंकार) वाले हैं।]

४३५६. यौ ते श्वानौ यम रक्षितारौ चतुरक्षौ पथिषदी नृचक्षसा ।

ताभ्यां राजन्‌ परि थेह्नोनं स्वस्त्यस्मा अनमीवं च धेहि ॥१२ ॥

हे मृत्युदेव यम ! आपके गृहरक्षक, मार्गरक्षक तथा ऋषियों द्वारा ख्यातिप्राप्त चार नेत्रो वाते जो दो श्वा

हैं, उनसे मृतात्मा को संरक्षित करें तथा इस मृतात्मा को कल्याण का भागी बनाकर पापकर्मों से मुक्त करे ५५२ ॥

४३५७. उरूणसावसुतृपावुदुम्बलौ यमस्य दूतौ चरतो जनाँ अनु।

तावस्मभ्यं दृशये सूर्याय पुनर्दातामसुमद्येह भद्रम्‌ ॥१३॥

यमदेव के ये दो दूत (कुक्कुर) लम्बी नाक वाले, प्राणहन्ता और अति सामर्थ्यवान्‌ हैं । ये मनुष्यो के प्राणहरण

का लक्ष्य लेकर घूमते है । दोनों (यमदूत) हमें सूर्य दर्शन लाभ के लिए इस स्थान पर कल्याणकारी प्राणदान

देने की कृपा करें ॥६३ ॥

४३५८. सोम एकेभ्यः पवते घृतमेक उपासते ।

येभ्यो मधु प्रधावति तांश्चिदेवापि गच्छतात्‌ ॥१४ ॥

किन्हीं पितरजनों के निपित्त सोमरस उपलब्ध रहता है और कोई घृताहुति का सेवन करते हैं । हे प्रेतात्मन्‌ !

जिनके लिए मधुर रस को धारा प्रवाहित होती है, आप उन्हीं के समीप पहुँचें ॥१४ ॥

४३५९. ये चित्‌ पूर्व ऋतसाता ऋतजाता ऋतावृधः ।

ऋषीन्‌ तपस्वतो यम तपोजाँ अपि गच्छतात्‌ ॥१५ ॥

पूर्वकालीन जो पुरुष सत्य का पालन करने वाले और सत्यरूप यज्ञ के संवर्द्धक थे, तपः ऊर्जा से अनुप्राणित

उन अतीन्द्रिय दरष्टा ऋषियों के समीप ही यमदेव के अनुशासन से युक्त यह पृतात्मा भी पहुँचे ॥१५ ॥

४३६०. तपसा ये अनाशृष्यास्तपसा ये स्वर्ययुः ।

तपो ये चक्रिरे महस्तांश्चिदेवापि गच्छतात्‌ ॥१६ ॥

जो तपश्चर्या के प्रभाव से किसी भी प्रकार पराभूत नहीं हो सकते, जो तपश्चर्या के कारण स्वर्ग को प्राप्त हुए

हैं तथा जिन्होंने कठिन तप- साधना सम्पन्न की है; हे प्रेतात्मन्‌ ! आप उन्हीं के समीप जाएँ ॥१६ ॥

४३६१. ये युध्यन्ते प्रथनेषु शूरासो ये तनूत्यजः ।

ये वा सहस्रदक्षिणास्तांश्विदेवापि गच्छतात्‌ ॥१७ ॥

हे प्रेत ! जो शूरवीर संग्राम में अपने प्राणों की आहूति देकर वौरगति को प्राप्त हुए हैं अथवा जो लोग अनेकों

प्रकार के दान देकर अपनी कोर्ति से इस संसार मे अमर हो गये हैं आप उन लोगों के समीप पहुँचें ॥१७ ॥

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