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+ पुराणौ परपे पुण्यं भविष्य सर्वसौख्यदम् «
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडु
करनलेमात्रसे ही सभी देवताओंको नमस्कार प्राप्त हो जाता है।
तीनों कालॉमें संध्या करनेवाएे ब्राह्मणजन भगवान् आदित्यको
ही प्रणाम करते हैं। भगवान् धास्करके बिम्बके नीचे राहु स्थित
है। अपृतकी इच्छा करनेयात्म राहु विमानस्थ अमृत-घटसे
थोड़ा भी अमृत छलकनेपर उस अमृत्तको प्राप्त करनेके उद्देश्यसे
जब विमानके अति संनिकट पहुँचता है तो ऐसा प्रतीत होता है
कि रान सूर्यनारायणको ग्रसित कर लिया है, उसे ही ग्रहण कहा
जाता है। आदित्य भगवानको कोई ग्रसित नहों कर सकता;
क्योंकि वे ही इस चराचर जगत्का चिनादा करनेवाले हैं। दिन,
रात्रि, मुहूर्त आदि सब आदित्य भगवान्के ही प्रपायसे प्रकारित
होते हैं। दिन, रात्रि, धर्म, अधर्म जो कुछ भी इस संसारमें
दृष्टिगोचर हो रहा है, उन सबको भगवान् आदित्य ही उत्पन्न
करते हैं। वे ही उसका विनाश भी करते हैं । जो व्यक्ति भगवान्
आदित्यकी भक्तिपूर्वक पूजा करता है, उस व्यक्तिकों भगवान्
आदित्य जीघ ही संतुष्ट होकर वर प्रदान करते हैं तथा बल,
वीर्य, सिद्धि, ओषधि, धन-धान्य, सुचर्ण, रूप, सौभाग्य,
आरोग्य, यञ, कीर्ति, पुत्र, पौत्रादि ओर मोक्ष आदि सब कुछ
प्रदान करते हैं, इसमें संदेह नहीं है ।
भीष्यने कहा--महात्मन् ! अब आप मुझसे सौरधर्मके
स्लानकी विधि रहस्यसहित बतलायें। जिससे भगवान्
आदित्यकी पूजाकर मनुष्य सभी प्रकारके दोसे छुटकारा प्राप्त
कर छेता है।
व्यासजी बोले-- भीष्म ! मैं सौर-स्रानकी संक्षिप्त
विधि बतला रहा हूँ, जो सभी प्रकारके फापोंको दूर कर देती
है। सर्वप्रथम पवित्र स्थानसे मृत्तिका ग्रहण करे, तदनन्तर उस
मृत्तिकाकों कारीरमें लगाये। फिर जलको अभिमन्त्रित कर स्नान
करे । शङ्खं, तुर्की आदिसे ध्वनि करते हुए सूर्यनारायणका
ध्यान करना चाहिये। भगवान् सूर्यके "हरौ ङ्गी सः" इस
मन्त्रणज़से आचमन करना चाहिये। फिर देवताओं एवै
ऋषियोंका तर्पण और स्तुति करनी चाहिये। अपसव्य होकर
पितरोंका तर्पण करे । अनन्तर संध्या-वन्दन करे | उसके बाद
भगवान् भास्करको अञ्जलिसे जल देना चाहिये। स्नान करनेके
बाद व््यक्षर-मनत्र हा ह्वीं सः' अथवा पडक्षर-मलत्र
"खखोल्काय नमः' का जप करना चाहिये। जिस मन्त्रराजको
पूर्वमे का है उस मन्त्राजसे हृदयादि न्यास करना चाहिये।
मन्त्रको हदयङ्गम कर भगवान् सूर्यनारायणको अर्ध्यं प्रदान
करना चाहिये ¦ एक ताप्रपात्रमे गन्ध, स््रर चन्दन आदिसे
सूर्य-मण्डल बनाकर उसमें करवीर (कनेर) आदिके
पुष्प, गन्धोदक, रक्तचन्दन, कुडा, तिल, चावल आदि स्थापिते
कर घुटनेको मोड़ उस ताप्र-पात्रको उठाकर सिरस लगाये
और भक्तिपूर्वक “हो हीं सः' इस मनत्रराजसे भगयान्
सूर्यनारायणको अर्ध्य प्रदानं करे । जो व्यक्ति इस विधघिसे
भगवान् आदित्यको अर्ध्यं निवेदन करता है, वह सभौ पापोंसे
मुक्त हो जाता है । हजारों संक्रान्तियों, हजारो चन््रप्रहणौ, हजारों
गोदाने तथा पुष्कर एवं कुरुक्षेत्र आदि तीरथोमिं लान करनेसे
जो फल प्राप्त होता है, वह फल केवल सूर्यनारायणको अर्ध्य
प्रदान करनेसे ही ग्राप्त हो जाता है। सौर-दीक्षा-विहीन व्यक्ति
भी यदि भगवान् आदित्यको संवत्सरपर्यन्त अर्घ्य प्रदान करता
है तो उसे भी वही फल प्राप्त होता है, इसमें कोई संदेह नहीं
है। फिर दोक्षाकों ग्रहण कर जो विधिपूर्वक अर्य प्रदान करता
है, वह व्यक्ति इस संसार-सागरकों पास्कर भगवान् भास्करपें
विस्वन हो जाता है।
भीष्मने कहा--अहान् ! आपने पाप-हरण करनेवाली
स्ान-विधि तो बता दी, अब कृपाकर उनकी पूजा-विधि
बतायें, जिससे मैं भगवान् सूर्यकी पूजा कर सकूँ।
व्यासजी बोले--भीष्म ! अब मैं आदित्य-पूजनकी
विधि कह रहा हूँ, आप सुनें। आदित्यपूजकक्ते चाहिये कि
खानादिसे पवित्र होकर किसी शुद्ध एकान्ते स्थाने प्रसन्न
होकर भास्कस्की पूजा करे। वह श्रेष्ठ सुन्दर आसनपर
पर्वाभिमुख बैठे । सूर्य-मन्त्रोंस करन्यास एवं हृदयादि-न्यास
करे । इस प्रकार आत्मशुद्धिकर न्यासद्वाग भगवान् सूर्यकी
अपनेमें भावना करे । अपनेको भास्कर समझकर स्थप्डिलपर
भानुकी स्थापना करके विधिवत् पूजा करे । दक्षिण-पार्श्रे
पुष्पकी टोकरी एवं वाम पारम जलसे परिपूर्ण ताप्रपात्र
स्थापित क्रे । पूजाके लिये उपकल्पित सभौ द्रव्योंका
अर्घ्यपात्रके जलसे प्रोक्षण कर पूजन करे, अनन्तर मन्त्रवेत्ता
एकाग्रचित्त होकर सूर्यमनत्रोंका जप करे ।
भीष्मने कहा--भगवन् ! अव आप भगवान् सूर्यकी
वैदिक अर्चा-विधि बतस्खयें ।
व्यासजी बोल्के--भीष्प आप इस सम्बन्धमें सुरज्येष्ठ