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नामवाले उतने ही रुद्र॒ जानने चाहिये । इनकी
नामावली इस प्रकार है-- ॥ १--५॥
अमरेश, प्रभास, नैमिष, पुष्कर, आषादि,
डिण्डि, भारभूति तथा लकुलीश- (यह प्रथम
अष्टक कहा गया) । हरिश्न्द्र, श्रीशैल, जल्प,
आप्रातकेश्वर, महाकाल, मध्यम, केदार और
भैरव - (यह द्वितीय अष्टक बताया गया) तत्पश्चात्
गया, कुरुक्षेत्र नाल, कनखल, विमल, अट्टहास,
महेन्द्र और भीम--(यह तृतीय आष्टक कहा
गया)। वस्त्रापद, रुद्रकोटि, अविमुक्त, महालय,
गोकर्ण, भद्रकर्ण, स्वर्णाक्ष ओर स्थाणु--(यह
चौथा अष्टक बताया गया)। अजेश, सर्वज्ञ,
भास्वर, तदनन्तर सुबाहु, मन्त्ररूपी, विशाल,
जटिल तथा रौद्र-( यह पाँचवाँ अष्टक हुआ) ।
पिङ्गलाक्ष, कालदंष्टी, विधुर, घोर, प्राजापत्य,
हुताशन, कालरूपी तथा कालकर्ण- (यह छटा
अष्टकं कहा गया) | भयानक, पतङ्ग, पिङ्गल, हर,
धाता, शङ्कुकर्ण, श्रीकण्ठ तथा चन्द्रमौलि (यह
सातवाँ अष्टक बताया गया) । ये छप्पन रुद्र छप्पन
भुवनोंमें व्याप्त है । अब बत्तीस पद बताये जाते
है ॥ ६--१३॥
व्यापिन्, अरूपिन्, प्रथम, तेजः, ज्योतिः,
अरूप, पुरुष, अनम्ने, अधूम, अभस्मन्, अनादे,
नाना नाना, धूधू धूधू, ॐ भूः, ॐ भुवः, ॐ
स्वः, अनिधन, निधन, निधनोद्धव, शिव, शर्व,
परमात्मन्, महेश्व, महादेव, सद्भाव, ईश्वर,
महातेजा, योगाधिपते, मुझ, प्रमथ, सर्व, सर्वस्वं -
ये बत्तीस पद हैं। दो बीज, तीन मन्त्र--वामदेव,
शिर, शिखा, गान्धारी और सुषुम्णा-दो नाड़ियाँ,
समान और उदान नामक दो प्राणवायु, रसना
और पायु-दो इन्द्रिय, रस नामक विषय, रूप,
शब्द, स्पर्श तथा रस-ये चार गुण, कमलसे
अङ्कित श्वेत अर्धचन्द्राकार मण्डल, सुषुप्ति अवस्था
[१ अग्निपुराण [१
तथा प्रतिष्ठामे कारणभूत भगवान् विष्णु -इस
प्रकार भुवन आदि सब तत्त्वोंका प्रतिष्ठाके भीतर
चिन्तन करके प्रतिष्ठाकला-सम्बन्धी मन््रसे शिष्यके
शरीरें भावनाद्वार प्रवेश करके उसे उस कलापाशसे
मुक्त करे ॥ १४--१८॥
"ॐ हां हीं हां प्रतिष्ठाकलापाशाय हं फट्
स्वाहा ।'-- इस स्वाहान्त-मन्तरसे ही पूरक प्राणायाम
तथा अङ्कशमुदरद्ारा उक्त कलापाशका आकर्षण
करे। तत्पश्चात्" ॐ हूं हां हीं हां हूं प्रतिष्ठाकलापाशाय
हूँ फट्।'--इस मन्त्रसे संहारमुद्रा और कुम्भक
प्राणायामद्वारा उसे हदयके नीचे नाड़ीसूत्रसे लेकर
"ॐ हूं हीं हां प्रतिष्ठाकलापाशाय नम: ।'-इस
मन्त्रसे उद्धवमुद्रा तथा रेचकं प्राणायामद्दारा कुण्डमें
स्थापित करे। तदनन्तर *ॐ हां हां हीं हां
प्रतिष्ठाकलाद्वाराय नम: ।'--इस मन्त्रसे अर्घ्य दे,
पूजन करके स्वाहान्त मन्त्रद्वारा तीन-तीन आहुतियाँ
देते हुए संतर्पण और संनिधापन करें। इसके बाद
"ॐ हां विष्णवे नमः।'--इस मन््रसे विष्णुका
आवाहन, पूजन ओर संतर्पण करके निम्नाङ्कित
प्रार्थना करे" विष्णो ! आपके अधिकारमें मैं
मुमुश्ु शिष्यको दीक्षा दे रहा हूँ। आप सदा
अनुकूल रहें ।' इस प्रकार विष्णुभगवानूसे निवेदन
करे। तत्पश्चात् वागीश्वरी देवी ओर वागीश्वर
देवताका पूर्ववत् आवाहन, पूजन और तर्पण
करके शिष्यकी छातीमें ताडन करे। ताड़नका
मन्त्र इस प्रकार है--' ॐ हां हं हः हूं फट्।' इसी
मन्त्रसे शिष्यके हृदयमें प्रवेश करके उसके
पाशबद्ध चैतन्यको अस्त्र-मन्त्र एवं ज्येष्ठ
अङ्कशमुदराद्वारा उस पाशसे पृथक् करे। यथा--
"ॐ हां हं हः फट्।' उक्त मन्त्रके ही अन्तर्मे
"नमः स्वाहा” लगाकर उससे सम्पुटित मन्त्रद्वारा
जीवचैतन्यको खींचे तथा नमस्कारान्त आत्ममन्त्रसे
उसको अपने आत्मामं नियोजित करे । आत्मामें