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निमित्त क्रमशः पाँच-पाँच आहुतियाँ दे। मायेय
(मायाजनित), मलजनित तथा कर्मजनित आदि*
पाश-बन्धनोंकी निवृत्तिक लिये हृदय-मन्त्रसे
निष्कृति (प्रायधित्त अथवा शुद्धि) कर लेनेपर
पीछे अग्नि सौ आहुतियाँ दे। मलशक्तिका
तिरोधान (लय) और पाशोंका वियोग सम्पादित
करनेके लिये ' स्वाहान्त' अस्त्र-मन्त्रसे पाँच-पाँच
आहुतियोंका हवन करे। अन्तःकरणमें स्थित मल
आदि पाशका सात बार अस्त्र-मन्त्रके जपसे
अभिमन्त्रित कटार-कला-शस्त्रसे छेदन करे। कला-
शस्त्रसे छेदनका मन्त्र इस प्रकार है--' ॐ हां हां
हां निवृत्तिकलापाशाय हः हूँ फट्'॥ ५१--५७॥
अन्धकताकी निवृत्तिके लिये अस्त्र-मन्त्रसे
दोनों हाथोंद्वारा मसलकर गोलाकार करके पाशको
भीसे भरे हुए खुबमें डाल दे। फिर कलामय
अस्त्रसे अथवा-केवल अस्त्र-मन्त्रसे उसको जलाकर
भस्म कर डाले। तदनन्तर पाशाङ्कुरकी निवृत्तिके
लिये पाँच आहुतियाँ दे। आहुतिका मन्त्र इस
प्रकार है--' ॐ हः अस्त्राय हूं फट् स्वाहा।' उक्त
आहुतिके पश्चात् अस्त्र-मन्त्रसे आठ आहुतियाँ
देकर प्रायश्चित्त-कर्म सम्पन्न करे। उसके बाद
विधाताकी आवाहन करके उनका पूजन और
तर्पण करे । फिर ' ॐ हां शब्दस्पर्शौ शुल्कं ब्रह्मन्
गृहाण स्वाहा ।' इस मन्त्रसे तीन आहुतियाँ देकर
शिष्यको अधिकार अर्पित करे। उस समय
ज्रह्माजीको भगवान् शिवकी यह आज्ञा सुनावे -
“ब्रह्मन्! इस बालकके सम्पूर्णं पाश दग्ध हो गये
है । अब आपको पुनः इसे बन्धने डालनेके लिये
यहाँ नहीं रहना चाहिये ।'॥ ५८--६३॥
--यों कहकर ब्रह्माजीको बिदा कर दे और
संहारमुद्राद्वारा एवं कुम्भक प्राणायामपूर्वक राहुमुक्त
एक देशवाले चनद्रमण्डलके सदृश आत्माको
तत्सम्बन्धी-मन्त्रका उच्चारण करते हुए दक्षिण
नाड़ीद्वारा धीरे-धीरे लेकर रेचक प्राणायाम एवं
"उद्धव" नामक मुद्राके सहयोगसे पूर्वोक्तं सूत्रमें
योजित करें। फिर उसकी पूजा करके गुरु
अर्ध्यपात्रमें स्थित अमृतोपम जलबिन्दु ले, शिष्यकी
पुष्टि एवं तृप्तिके लिये उसके सिरपर रखे।
तत्पश्चात् माता-पिताका विसर्जन करके ' वौषडन्त'
अस्त्र-मन्त्रके द्वारा विधिकी पूर्तिके लिये पूर्णाहुति-
होम करे। ऐसा करनेसे निवृत्तिकलाकी शुद्धि
होती है। पूर्णाहुतिका पूरा मन्त्र इस प्रकार है-
"ॐ हूं हां अमुक आत्मनो निवृत्तिकलाशु्धिरसत
स्वाहा फट् वौषट् ' ॥ ६४--६७॥
इस प्रकार आदि भग्ने महापुराणे “निर्काण-दीक्षाके अन्तयति त्रिवुत्तिकला- शोधन ” नामक
चाँगसीवाँ अध्याय पूरा हुआ# ८४४
व
पचासीवाँ अध्याय
निर्वाण-दीश्चाके अन्तर्गत प्रतिष्ठाकलाके शोधनकी विधिका वर्णन
भगवान् शंकर कहते हँ -- स्कन्द ! तदनन्तर | वायु, आकाश, पाँच तन्मात्रा, दस इन्दिय, बुद्धि,
शुद्ध और अशुद्ध कलाओंका शान्त॒ और | तीनों गुण, चौबीसवाँ अहंकार ओर पुरुष -इन
नादान्तसंज्ञक हस्व-दीर्घ- प्रयोगद्वारा संधान करे । | पचीस तत्त्वों तथा “क से लेकर “य' तकके
संधानका मन्त्र इस प्रकार है-“ ॐ हां द्रां ह्वी | पचीस अक्षका चिन्तन करे । प्रतिष्ठाकलामें
हां ।' इसके बाद प्रतिष्ठाकलामें निविष्ट जल, तेज, | छप्पन भुवन हैं और उनमें उन्हीके समान
* "आदि ' पदसे यहाँ "रिरोधाने ', 'शक्तिज', और " चिन्दुज ' नामक पाश समझने चाहिये ।