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ध्८८ रख छः जअज्रीविष्णपुराण आफ फकफझफ १

[ अ० ९

सामशथ्यें सति तत्याज्यमुभाभ्यामपि पार्धिव ।

हे रजन्‌ ! इन उपरोक्त वृत्तियोंकों भी सामर्थ्य होनेपर त्याग

तदेबापदि कर्तव्यं न कुर्यात्कर्मसङ्कुरम्‌ ॥ ४० | दे; केवल आपत्कालमें हो इनका आश्रय ले, कर्म-सद्भुरता

इत्येते कथिता राजन्वर्णधर्मा मया तव ।

(कर्मकः मेल) न करे ॥ ४० ॥ है गाजन्‌ ! इस प्रकार

कर्णधर्मौंका वर्णन तो मैंने तुमसे कर दियो; अब आश्रम

धर्मानाश्रमिणां सम्यग्ब्रुवतो मे निशामय ॥ ४१ | धर्मोका निरूपण और करता हूँ, सावधान होकर सुनो ॥ ४१॥

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इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेंडशे अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

ब्रह्मचर्यं आदि आश्रमोंका वर्णन

कृतोपनयनो

गुरुगेहे वसेद्धूप ब्रह्मचारी समाहितः ॥ ९

शौचाचारत्रत॑ तत्र कार्य शुश्रूषणं गुरोः ।

व्रतानि चरता ग्राह्यो वेदश्च कृतचुद्धिना ॥ २

उभे सन्ध्ये रविं भूष तथैवाभ्नि समाहितः ।

उपतिष्ठत्तदा कुर्याद्रोरप्यधिव्ादनम्‌ ॥ ३

स्थिते तिष्ठेद्रजेग्याते नीचैरासीत चासति ।

शिष्यो गुगोर्ृपश्चेष्ठ प्रतिकूलं न सङ्करेत्‌ ।॥। ४

तेनैवोक्तं पलेद्ेदं॑ नान्यचित्तः पुरस्स्थितः ।

अनुज्ञातश्च भिक्षान्नमश्रीया दरुणा ततः ॥ ५

अवगाहेदपः पूर्वमाचार्यणावगाहिताः ।

समिरज्लादिकं चास्य कल्यं कल्यमुपानयेत्‌ ॥ ६

गृहीतग्राह्मवेदश्च ततोऽनुज्ञामवाप्य च ।

गाहस्थ्यमाविशेद्याज़ो निष्पन्नगुरुनिष्कृति: ॥ ७

विधिनावाप्रदारस्तु धनं प्राप्य सवकर्पणा ।

गृहस्थकार्यमस्िलं कुर्याद्धपाल राक्तितः ॥ ८

निवापेन पितृनर्चन्यज्ञ्ेवास्तथातिथीन्‌ ।

अन्नैर्मुनीक्ष स्वाध्यायैरपत्येन प्रजापतिम्‌ ॥ ९

भूतानि बलिभिश्रैव वात्सल्येनाखिलं जगत्‌ ।

प्राप्रोति ल्लोकाग्पुरुषो निजकमंसमार्जितान्‌ ॥ १०

ओर्व बोले--हे भूपते ! बाल्केकों चाहिये कि

उफयन-संस्कारके अनन्तर वेदाध्ययनमे तत्पर होकर

जह्यचर्यका अवलम्बन कर सावधानतापूर्वक गुरुगृहमें

निवास करे॥ १॥ वहाँ रहकर उसे शौच और आचार-

ब्रतका पालन करते हुए गुरुक सेवा-शुशरुवा करनी चाहिये

तथा ब्रतादिका आचरण करते हुए स्थिर-बुद्धिसे वेदाध्ययन

करना चाहिये॥२॥ हे राजन्‌! [प्रातःकाल और

सायकाल] दोनों सन्ध्या्ओमिं एकाप होकर सूर्य और

अप्रिकी उपासना करे तथा गुरुक अभिवादन करे ॥ ३ ॥

गुरुके खड़े होनेपर खड़ा हो जाय, चलनेपर पीछे पीछे चलने

लगे तथा बैठ जानेपर नीचे बैठ जाय। हे नृपश्रेश्च ! इस

प्रकार कभी गुरुके विरुद्ध कोई आचरण न करे ॥ ४॥

गुरूजीके कहनेपर ही उनके सामने बैठकर एकाघचित्तसे

वेदाध्ययन करे और उनकी आज्ञा होने ही भिक्षात्र भोजन

करे ॥ ५॥ जरूमें प्रथम आचार्यके स्र कर चुकनेपर फिर

गवयं नान को तथा प्रतिदिन प्रातःकाल गुरुजीके

समिधा, जल, कुश ओर पुष्पादि लाकर जुटा दे ॥ ६ ॥

इस प्रकार अपना अभिमत वेदपाठ समाप्त कर

चुकनेपर बुद्धिमान शिष्य गुरूजीकी आज्ञासे उन्हें गुरु-

टक्षिणा देकर गृहस्थाश्रममें प्रवेदा करे ॥ ७ ॥ हे राजन्‌ !

फिर विधिपूर्वकं पाणिग्रहण कर अपनी वर्णानुकूछ

खुत्तिसे द्रव्योपार्जत करता हुआ सामर्थ्यातुसार समस्त

गृहकार्यं करता रहे॥ ८॥ पिष्ड-दानादिसे पितृगणकी,

यज्ञादिसि देबताओंकी, अत्नदानसे अतिधिर्योकी,

स्याध्यायसे ऋषियोंकी, पुत्रोत्पत्तिसे प्रजापतिकी, बलियों

(अन्नभाग) से भूतगणको तथा वात्सल्यभावसे सम्पूर्ण

जगत्‌की पूजा करते हुए पुरुष अपने कर्मोद्गार मिले हुए

लोकॉंको प्राप्त कर केता है ॥ ९-१०॥

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