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४८ अक्ववेद संहिता भाग-९

१२५८. समाहर जातवेदो यदधृतं यत्‌ पराभृतम्‌ ।

गात्राण्यस्य वर्धन्तामंशुरिवा प्यायतामयम्‌ ॥९२ ॥

हे जातवेदा अग्निदेव ! इस व्यक्ति का जो भाग हर लिया गया है तथा विनष्ट कर दिया गवा है, उस भाग

को आप पुन: भर दें, जिससे इसके अंग-प्रत्यंग पुष्ट होकर चन्द्रमा की भाँति वृद्धि को प्राप्त हों ॥१२ ॥

१२५९. सोमस्येव जातवेदो अंशुरा प्यायतामयम्‌ ।

अम्बे विरण्डिनं मेध्यमयक्मं कृणु जीवतु ॥१३ ॥

हे जातवेदा अग्ने ! यह पुरुष चन्द्रमा की कलाओं के सदृश वृद्धि को प्राप्त हो । हे अग्ने ! आप इस निर्दोष

व्यक्ति को पवित्र एवं नीरोग करें, जिससे यह जीवित रहे ॥१३ ॥

[ विभिन समियाओं की रोगनाशक शक्ति का संकेत इस मंत्र पे है । ]

१२६०. एतास्ते अग्ने समिधः पिशाचजम्भनीः ।

तास्त्वं जुषस्व प्रति चैना गृहाण जातवेदः ॥१४ ॥

हे अग्ने ! आपकी ये समिधाएँ पिशाचो (कृमियों ) को विनष्ट करने वाली ह । हे जातवेदा अग्ने ! आप

इनको स्वीकार करें तथा इन्हें ग्रहण करें ॥१४ ॥

१२६९. तार्टाघीरम्ने समिधः प्रति गृहणाह्ार्चिषा ।

जहातु क्रव्यादुपं यो अस्य मांसं जिहीर्षति ।१५ ॥

हे अग्निदेव ! आप अपनी लपटो दवारा वृषा शपन करने वाली सपिधाओं को स्वीकार करें । जो मांसभक्षी

पिशाच इसके मांस को हरना चाहते है वे अपने रूप को छोड़ दें ।१५ ॥

[३०- दीर्घायुष्य सूक्त |

[ ऋषि - उन्मोचन । देवता - आयुष्य | छन्द - अनुष्टपू १ पध्यापक्ति, ९ भुरिक्‌ अनष, १२ चतुष्पदा विराट्‌

जगती, १४ विरा प्रस्तारपंक्ति, १७ तज्यवसाना षटपदा जगती । ]

इ सुक्त में प्रियलनों के अन्दर णलक्ति की क्षीणता से, अभिचार क्रियाओं से अथवा पूर्वकृत पापकर्मों ते प्रभाव से

होने वाले आयुक्षयणकारी रोगों को नष्ट करने के लिए मंत्र बल, साथना क्ति तथा अन्य उपचारों द्वारा प्राण शक्ति संवर्धन के

भाव सूत्र व्यक्त किये णये हैं-

१२६२. आवतस्त आवतः पराक्तस्त आवतः ।

इहैव भव मा नु गा मा पूर्वाननु गाः पितृनसुं बध्नामि ते दृढम्‌ ॥१॥

आपके अत्यन्त समीप तथा अत्यन्त दूर के स्थान से हम आपके पराणो को दृढ़ता से बाँधते है । आप पूर्व

पिते का अनुसरण न करें ( शरीर म छोड़ें ), यहीं रहें ॥१ ॥

१२६३. यत्‌ त्याभिचेरु: पुरुषः स्वो यदरणो जनः ।उन्मोचनप्रमोचने उभे वाचा वदामि ते॥

यदि आपके अपने लोग अथवा कोई हीन लीग आपके ऊपर अभिचार करते हैं, तो उससे छूटने तथा दूसरे

होने की बात (विद्या, विधि) हम कहते हैं ॥२ ॥

१२६४. यद्‌ दुद्गोहिथ शेपिषे खियै पुंसे अचित्त्या ।उन्मोचनप्रमोचने उभे वाचा वदामि ते॥

यदि आपने स्त्री अथवा पुरुष के प्रति द्रोह किया अथवा शाप दिया है, तो उससे छूटने तथा दूर होने की

दोनों बाते (विधियौ ) हम आपसे कहते है ॥३ ॥

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