काण्ड-५ सूक्त- २९ ४७
हे अग्निदेव ! जो पिशाच इसको खाने को इच्छा कर चुके हैं, उनकी आँखों तथा उनके इदर्यो को आप बीध
डालें । उनकी जीभ को काट डालें । हे बलवान् अग्निदेव ! आप उन्हें विनष्ट कर डालें ॥४ \
१२५१. यदस्य हृतं विहतं यत् पराभूतमात्मनो जग्धं यतमत् पिशाचैः ।
तदग्ने विद्धान् पुनरा भर त्वं शरीरे मांसमसुमेरयामः ॥५ ॥
पिशाचो ने इसके शरीर का जो भाग हर लिया है, छीन लिया है, लूट लिया है तथा जो भाग खा लिया है, हे
ज्ञानी अग्ने ! ठस भाग को आप पुन: भर दें । इसके शरीर में मांस तथा प्राणों को हम विधिवत् प्रयोगों से पुनः
स्थापित करते हैं ॥५ ॥
१२५२. आमे सुपक्वे शबले विपक्वे यो मा पिशाचो अशने ददम्भ ।
तदात्मना प्रजया पिशाचा वि यातयन्तामगदोदेयमस्तु ॥६ ॥
जो पिशाच (कृमि) कच्चे-पवके, आधे पके तथा विशेष पके भोजन में प्रवेश करके हमे हानि पहुँचाते हैं, ऐसे
पिशाच स्वयं तथा अपनी सन्तानो के साथ कष्ट भोगे ओर यह रोगी नीरोग हो जाए ॥६ ॥
१२५३. क्षीरे मा मन्थे यतमो ददम्भाकृष्टपच्ये अशने धान्येरे यः।
तदात्मना प्रजया पिशाचा वि यातयन्तामगदोरेयमस्तु ॥७ ॥
जो पिशाच (कृमि) दुग्ध मंथ (मठा) तथा बिना खेती उत्पन्न होने वाले अन्न (खाद्यों ) मे प्रवेश करके हमें
हानि पहुँचाते है, वे पिशाच स्वयं तथा अपनी संतानो के साथ कष्ट भोगे ओर यह रोगी नोरोग हो जाए ॥७ ॥
१२५४. अपां मा पाने यतमो ददम्भ क्रव्याद् यातूनां शयने शयानम् ।
तदात्मना प्रजया पिशाचा वि यातयन्तामगदोदेयमस्तु ॥८ ॥
जो पिशाच (कृमि ) जलपान करते समय तथा बिछौने पर शयन करते समय हमें पीडित करते है, वे पिशाच
अपनी प्रजाओं के साथ दूर हट जाएँ और यह एगो नीरोग हो जाए ॥८ ॥
१२५५. दिवा मा नक्तं यतमो ददम्भ क्रव्याद् यातूनां शयने शयानम् ।
तदात्मना प्रजया पिशाचा वि यातयन्तामगदोदेयमस्तु ॥९ ॥
जो पिशाच (कृषि) रात अथवा दिन में बिस्तर पर सोते समय हमें पीडित करते द वे पिशाच अपनी प्रजाओं
सहित दूर हट जाएँ ओर यह रोगी नीरोग हो जाए ॥९ ॥
१२५६. क्रव्यादमग्ने रुधिरं पिशाचं मनोहनं जहि जातवेदः ।
तमिन्द्रो वाजी वज्रेण हन्तु च्छिनत्तु सोमः शिरो अस्य धृष्णुः ॥१० ॥
हे जातवेदा अग्ने ! आप मांसभक्षक, रक्तभक्षक तथा मन मारने वाते पिशाचो को विनष्ट करें । शक्तिशाली
इद्धदेव उन्हें वज्र से मारे ओर निर्भीक सोमदेव उनके सिर को कार ॥१० ॥
१२५७. सनादम्ने मृणसि यातुधानान् न त्वा रक्षांसि पृतनासु जिम्युः ।
सहमूराननु दह क्रव्यादो मा ते हेत्या मुक्षत दैव्यायाः ॥१९ ॥
है अग्निदेव ! कष्ट देने वाले यातुधानियों को आप सदैव विनष्ट करते हैं और संग्राम मे असुरगण
आपको पराजित नही कर पाते । आप मांस भक्षण करने वालों को समूल भस्म करे, आपके दिव्य हथियारों से
कोई छूटने न पाए ॥११ ॥