काण्ड-५ सुक्त- ३० डर
१२६५. यदेनसो मातृकृताच्छेषे पितृकृताच्च यत्।
उन्मोचनप्रमोचने उभे वाचा वदामि ते ॥४ ॥
यदि आप माता अथवा पिता के द्वारा किये गये पापों के कारण शयन कर रहे है, तो उस (पाप निमित्तक)
रोग से छूटने तथा दूर होने की दोनों बातें विधां ) हम बतलाते है ॥४ ॥
१२६६. यत् ते माता यत् ते पिता जामिर्ध्राता च सर्जतः ।
प्रत्यक् सेवस्व भेषजं जरदष्टिं कृणोमि त्वा ॥५ ॥
जिस ओषधि को आपके माता, पिता, भाई तथा बहिन ने तैयार किया है, उस ओषधि को आप भलीप्रकार
सेवन करें । हम आपको वृद्धावस्था तक जीवित रहने वाला बनाते हैं ॥५ ॥
१२६७. इहैधि पुरुष सर्वेण मनसा सह । दूतौ यमस्य मानु गा अधि जीवपुरा इहि ॥६ ॥
है मनुष्यो ! आप अपने सम्पूर्ण मन के साथ पहले यहाँ निवास करते हुए जीवित रहें, यमदूतो का
अनुसरण न करें ॥६ ॥
१२६८. अनुहूतः पुनरेहि विद्वानुदयनं पथः ।
आरोहणमाक्रमणं जीवतोजीवतो5यनम् ॥७ ॥
आप उदित होने के मार्ग को जानने वाले हैं आप इस कर्म के बाद आवाहित होते हुए पुनः पधारें । उत्तरायण
तथा दक्षिणायण आपकी जीवित अवस्था में ही व्यतीत हों ॥७ ॥
१२६९. मा विधेर्न मरिष्यसि जरदष्टिं कृणोमि त्वा ।
निरवोचमहं यक्ष्मपद्घेभ्यो अद्गज्वरं तव ॥८ ॥
हे रोगी मनुष्य ! आप भयभीत न हों । हम आपको इस लोक में वृद्धावस्था तक जीवित रहने वाला बनाते
हैं हम आपके अंगों से यक्ष्मा तथा अंग - ज्वर बाहर निकाल देते हैं ॥८.॥
१२७०. अड्भभेदो अङ्खज्वरो यश्च ते हदयामयः।
यक्ष्यः श्येन इव प्रापप्तद् वाचा साढः परस्तराम् ॥९ ॥
आपके अंगों की पीड़ा, अंगों का ज्वर, हृदय का रोग तथा यक्ष्मा रोग हमारी वाणी (मंत्र शक्ति) से पराजित
होकर बाज़ पक्षी के समान दूर भाग जाएँ ॥९ ॥
१२७९. ऋषी बोधप्रतीबोधावस्वप्नो यश्च जागृविः ।
तौ ते प्राणस्य गोप्तारौ दिवा नक्तं च जागृताम् ।॥१० ॥
निद्रारहित तथा जाग्रत् अवस्था के बोध और प्रतिबोध यह दो ऋषि है । वे दोनों आपके प्राण को सुरक्षा
करने वाले है । वे आपके अन्दर दिन-रात जागते हैं ॥१० ॥
१२७२. अयमग्निरुपसद्य इह सूर्य उदेतु ते ।
उदेहि मूत्योर्गम्भीरात् कृष्णाच्चित् तमसस्परि ॥११॥
ये अग्निदेव समीप में रखने योग्य हैं । यहाँ आपके लिए सूर्यदेव उदित हों । आप घोर अन्धकार रूपी मृत्यु
से निकलकर उदय को प्राप्त हों ॥११ ॥