ब्राह्मपर्य ]
* सपि लक्षण, स्वरूप और जाति «
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अश्वतर, धृता, शंखपाल, कालिय, तक्षक और
पिगल --इन बारह नागोंकी बारह महनोमि क्रमश्च: पूजा करे ।
इस प्रकार वर्षपर्यन्तं व्रत एवं पुजनकर व्रतकी पारणा
करनी चाहिये । बहूतसे क्राह्मणोंकों भोजन कराना चाहिये ।
बिद्वान् ब्राह्मणकों सोनेक्य नाग बनाकर उसे देना चाहिये। यह
उद्यापनकी विधि है। राजन् ! आपके पिता जनमेजयने भी
अपने पिता परीक्षितके उद्धास्के लिये यह व्रत किया था और
सोनेका बहुत भारौ नाग तथा अनेक गौ ब्राह्मणोंको दो धीं
ऐसा करनेपर वे पितृ-ऋणसे मुक्त हुए थे और परीक्षित्ने भी
उत्तम ल्प्रेककों प्राप्त किया था। आप भी इसी प्रकार सोनेका
जग वन्ककर् उनकी पूजाकर उन्हें ब्राह्मणको दान करें, इससे
आप भी पितृ-ऋणसे मुक्त हो जायैंगे। राजन! जो कोई भी इस
नागपश्षमी-ब्रतको करेगा, सिसे डैसे जानेपर भी वह
शुभल्त्ेकको प्राप्त होगा और जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक इस
कथाकों सुनेगा, उसके कुलम कभी भी साँपका भय नहीं
होगा । इस पञ्चमी-त्रतके करनेसे उत्तम लोककी प्राप्ति होती है ।
(अध्याय ३२)
सपेकि लक्षण, स्वरूप और जाति'
राजा हातानीकने पूछा--मुने ! सपोंके कितने रूप हैं,
क्या लक्षण हैं, कितने रंग हैं और उनकी कितनी जातियाँ हैं ?
इसका आप वर्णन करें ।
सुमन्तु मुनिने कहा--राजन् ! इस विषयमे सुमेर
पर्वतपर महर्षि कश्यप और गौतमका जो संकाद हुआ था,
उसका मैं वर्णन करता हूँ। महर्षि कक््यप किसी समय अपने
आश्रममें बैठे थे। उस समय बहाँ उपस्थित महर्षि गौतमने
उन्हें प्रणामकर विनयपूर्वक पूछा--महाराज! सरपोकि लक्षण,
जाति, वर्ण और स्वभाव किस प्रकारके हैं, उनका आप वर्णन
करें तथा उनकी उत्पतति किस प्रकार हुई है यह भी बतायें। वै
विष किस प्रकार छोड़ते हैं, विषके कितने वेग हैं, विषको
कितनी नाड़ियाँ हैं, सकि दाति कितने प्रकारके होते हैं,
सर्पिणीको गर्भं कब होता है और यह कितने दिनोंमें प्रसल
करती है, स्त्री-पुरुष और नपुंसक सर्पका क्या लक्षण है, ये
क्यों काटते है, इन सब बातोंको आप कृपाकर मुझे बतायें।
कह्यपजी ओोले--मुने ! आप ध्यान देकर सुनें। मैं
सर्पोकि सभी भेदोंका वर्णन करता हूँ। ज्येष्ठ ओर आषाढ़ मासमे
सर्पौको मद होता दै । उस समय वे मैथुन करते हैं । वर्षा ऋतुके
चार महीनेतक सर्पिणी गर्भ धारण करती है, कार्तिके दो सौ
चालीस अंडे देती है ओर उनमेंसे कुछको स्वयं प्रतिदिन खाने
लगती है। प्रकृतिकी कृपासे कुछेक अंडे इधर-उधर दुलककर्
बच जाते हैं। सोनेकी तरह चमकनेवाले अंडॉमें पुरूष,
स्वर्णकेतक वर्णके समान आभावाले और लंबी रेख ओंसे युक्त
अंडॉसे खी तथा हिरोषपुष्पके समान रेगवाले अंडेकि वोच
नधुसक सर्प होता है। उन अंडॉको सर्पिणो छः महीनेतक
सेतौ है। अनन्तर अद्यैके फूटनेपर उनसे सर्प निकलते हैं
और वे बच्चे अपनी मातासे स्रेह करते हैं। अंडेके बाहर
निकलनेके सात दिने बच्चोंका कृष्णवर्ण हो जाता है। सर्पको
आयु एक सौ बीस वर्षकी होती है और इनकी मृत्यु आठ
प्रकारसे होतो है--मोरसे, मनुष्यसे, चकोर पक्षौसे, विल्लोसे,
नकुलसे, शूकरसे, वृश्चिकसे और गौ, भैंस, घोड़े, ऊँट आदि
पशुओंके खुरोंसे दब जानेपर । इनसे बचनेपर सर्प एक सौ बीस
वर्षतक जीवित रहते हैं। सात दिनके बाद दाँत उगते हैं और
इक्कीस दिनपे विष हो जाता है । साँप काटनेके तुरत बाद अपने
जबड़ेसे तीक्ष्ण विषक त्याग करता है और फिर किष इकट्ठा हो
जाता है। सर्पिणंके साथ घूमनेवाला सर्प बालसर्प कहा जाता
है। पचीस दिनमें वह यधा भी विके द्वारा दूसरे प्राणियोंके
प्राण हरनेमें समर्थ हो जाता है। छः महीनेमें कंचुक-
(केंचुल-) का त्याग करता है। साँफ्के दो सौ चालीस पैर होते
है, परंतु यै पैर गायके रोयेंक समान बहुत सूक्ष्म होते हैं,
इसीलिये दिखायी नहीं देते। चलनेके समय निकल आते हैं
और अन्य समय भोतर प्रविष्ट हो जाते हैं । उनके शरोरमें दो सौ
बीस और दो सौ बीस संधियाँ होती हैं। अपने
सपयके चिना जो सर्प उत्पन्न होते हैं उनमें कम विष रहता है
१-शिवतत्व-रन्नाकर और अभिल्पितार्थ-ब्ित्तामणि तथा आयुर्खेद-ग्रव्थॉ---सुत्रुत, चरक, याग्भट्रके चिकित्माख्यानॉमें भी इस विषयक
वर्णन पिलता है।