घं० १ सु० ४५ ६३
५२७. अग्न पूर्वा अनृषसो विभावसो दीदेथ विश्वदर्शतः ।
असि ग्रामेष्वविता पुरोहितो ऽसि यज्ञेषु मानुषः ॥१० ॥
है विशिष्ट दीप्तिमान् अग्निदेव ! विश्वदर्शनीय आप उपाकाल के पूर्व ही प्रदीप्त होते है । आप ग्रामो की
रक्षा करते वाले तथा यज्ञो, मानवो के अग्रणी नेता के सपान पूजनीय हैं ॥१० ॥
५२८. नि त्वा यज्ञस्य साधनमग्ने होतारमृत्विजम् ।
भनुष्वदेव धीमहि प्रचेतसं जीरं दूतममर्त्यम् ॥१९॥
है अग्निदेव ! हम मनुष्यों की भाँति आप को यज्ञ के साधन रूप, होता रूप, ऋत्विज् रूप, प्रकृष्ट ज्ञानी रूप
चिर-पुरातन और अविनाशी रूप में स्थापित करते हैं ॥११ ॥
५२९. यद्देवानां मित्रमहः पुरोहितोऽन्तरो यासि दूत्यम् ।
सिन्धोरिव प्रस्वनितास ऊर्मयोऽगनेरभ्रजन्ते अर्चयः ॥१२॥
हे मित्रों मे महान् अग्निदेव ! आप जब यज्ञ के पुरोहित रूप घे देवों के बीच दूत कर्म के निमित्त जाते हैँ.
तब आपकी ज्वालाये समुद्र की प्रचण्ड लहरों के समान शब्द करती हुई प्रदीष्त होती हैं ॥१२ ॥
५३०. श्रुधि श्रुत्कर्ण वह्धिभिर्देवैरग्ने सयावधिः।
आ सीदन्तु बर्हिषि मित्रो अर्यमा प्रातर्यावाणो अध्वरम् ॥१३॥
प्रार्थना पर ध्यान देने वाले हे अग्निदेव ! आप हमारो स्तुति स्वीकार करें । दिव्य अग्निदेव के साथ समान
गति से चलने वाले, मित्र और अर्यमा आदि देवगण भी प्रातःकालीन यज्ञ में आसीन हों ॥१३ ॥
५३१. शृण्वन्तु स्तोपं मरुतः सुदानवोऽग्निजिह्वा ऋतावृधः ।
पिबतु सोमं वरुणो धृतव्रतोऽश्चिभ्यामुषसा सजूः ॥१४॥
उत्तम दानशोल, अग्निरूप जिद्भा से यज्ञ को प्रवृद्ध करने वाते मरुदगण इन स्तोज्रों का श्रवण करे ।
नियपपालकं वरुणदेव, अश्विनोकुमारों और देवी उषा के साथ सोम -रस का पान करें ॥१४ ॥
[सूक्त - ४५ |
[ ऋषि- प्रस्कण्व काण्व । देवता-अग्नि,१० उत्तार्द्ध-देवगण । छन्द- अनुष्टप् ।]
५३२. त्वमग्ने वसूरिह रुद्रां आदित्यां उत । यजा स्वध्वरं जनं मनुजातं घृतप्रुषम् ॥९॥
वसु रुद्र ओर आदित्य आदि देवताओं को प्रसलता के निमित्त यज्ञ करने वाले हे अग्निदेव ! आप घृताहुति
से श्रेष्ठ यज्ञ सम्पन्न करने वाले मनु - संतानो (मनुष्यों ) का (अनुदानादि द्वारा) सत्कार करें ॥६ ॥
५३३. श्रुष्टीवानों हि दाशुषे देवा अग्ने विचेतस:। तान्रोहिदश्च गिर्वणस्रयस्रिशतमा वह॥२ ॥
अग्निदेव ! विशिष्ट ज्ञान - सम्पन्न देवगण, हविदाता के लिए उत्तम ख देते हैं। हे रोहित वर्णं अश्व
वाते (अर्थात् रक्तवर्णं कौ ज्यालाओ से सुशोभित) स्तुत्य अग्निदेव ! उन तैंतौस कोरि देवों को यहाँ यज्ञस्थल
पर लेकर आयें ॥२ ॥
५३४, प्रियमेथवदत्रिवज्जातवेदों विरूपवत्। अड्विसस्वन्यहिव्वत प्रस्कण्वस्य श्रुधी हवम्॥३॥
हे श्रेष्ठकर्मा, ज्ञान - सम्पन अग्निदेव ! जैसे आपने प्रियपेधा, अत्रि, विरूप और अंगिरा के आवाहनों को
सुना था, वैसे ही अब प्रस्कण्व के आवाहन को भी सुनें ॥३ ॥