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आ२ १५ ]

कोप॑ यच्छत राजानः शृणुध्वं च क्चो मम ।

सन्धान वः करिष्यामि सह क्ितिरुदैरहम्‌ ॥ ६

एत्रभूता च कन्येयं वार्षेयी वरवर्णिनी ।

भविष्यजानता पूर्व मया गोभिर्विषर्द्धत ॥ ७

मारिषा नाम नाम्रैषा वृक्षाणामिति निर्मिता ।

भार्या वोऽस्तु महाभागा धुवं वंशविवर्दधिनी ॥ ८

युष्माकं तेजसोऽर्धेन मम चार्द्धेन तेजसः ।

अस्यामुत्पसस्यते विद्वान्दक्षो नाम प्रजापति: ॥ ९

मप चादोन संयुक्तो युष्मक्तेजोभयेन यै ।

तेजसाप्रिसमो भूयः प्रजाः संवर्द्धयिष्यति । १०

कण्डुर्नाम मुनिः पूर्वमासीद्धेदविदां खरः ।

सुरम्ये गोमतीतीरे स तेपे परमं तपः ॥ ९९

तत्क्षोभाय सुरेन्द्रेण प्रम्कोचाख्या वराप्सराः ।

प्रयुक्ता क्षोभयामास तमृषिं सा शुचिस्मिता ।। १२

त॑ सा प्राह महाभाग गन्तुमिच्छाप्यहं दिवम्‌ ।

प्रसादसुमुखो ब्रह्ननुञ्ञ दातुमर्हसि ॥ १४

तयैवमुक्तः स मुनिस्तस्यामासक्तमानसः ।

दिनानि कतिचिद्धदधे स्थीयतामित्यभाषत ॥ १५

एवमुक्ता ततस्तेन साञ्न॑ वर्षशत पुनः ।

जुभुजे विषयांस्तन्वी तेन साकं महात्मना ॥ १६

अनुज्ञ देहि भगवन्‌ व्रजामि त्रिदशालयम्‌ ।

उक्तस्तथेति स पुनः स्थीयतामित्यभाषत ॥ १७

पुनर्गते वर्घते साधिके सा शुभानना ।

यामीत्याह दिवं ब्रह्मग्रणयस्मितशों भनम्‌ ॥ १८

उक्तस्तयैवं स॒ मुनिरुपगुह्यायतेश्चषणाम्‌ ।

इहास्यतां क्षणं सुधर चिरकाल गपिष्यसि ॥ १९

सा क्रीडमाना सुश्रोणी सह तेनर्षिणा पुनः ।

सत्यं किञ्छिदूनं वर्षाणामन्जतिप्ठत ॥ २०

गमनाय महाभाग देवराजनिवेषानम्‌ ।

प्रोक्तः प्रोक्तस्तया तन्व्या स्थीयतामित्यभाषत ॥ २९

प्रणम अदा

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प्रचेताओंके पास जाकर कहां--- ॥ ५॥ “हे नृपतिगण !

आप क्रोध शन्त कीजिये और मैं जो कुछ कहता हूँ,

सुनिये। मैं वृक्षोके साथ आपलोगॉकी सन्धि करा दूँगा

॥ ६ ॥ वृक्षो से उत्पन्न हुई इस सुन्दर वर्णवाली रत्नस्वरूपा

कन्याका मैंने पहलेसे ही भविष्यको जानकर अपनी

[ अमृतमयी ] किरणोंसे पालन-पोषण किया है ॥ ७ ॥

वृक्षोंकी यह कन्या मारिषा नामसे प्रसिद्ध है, यह महाभागा

इसलिये ही उत्पन्न की गयी है कि निश्चय हो तुम्हारे वंशको

बढ़ानेवाली तुम्हारी भार्या द्यो ॥ ८ ॥ मेरे और तुम्हारे

आधे-आधे तेजसे इसके परम निदान्‌ दक्ष नामक प्रजापति

उत्पन्न होगा॥ ९॥ वह तुम्हारे तेजके सहित मेरे असे

प्रजाकी खूब वुद्धि करेगा ॥ १० ॥

पूर्वकाले वेदवेत्ताओँमें श्रेष्ठ एक कप्डु नामक

मुनीश्वर थे। उन्होंने गोमती नीके परम स्मणीक तटपर घोर

तप किया॥ ११॥ ठव इन्द्रे उन्हें तपोभरष्ट करनेके लिये

प्रम्त्थ्चेचा नामकी उत्तम अप्सरक्ये नियुक्त किया। उस

मञ्जुहसिनीनि उन ऋषिश्रेष्ठकों विचलित कर दिया ॥ १२ ॥

उसके द्वारा क्षुब्य होकर ले सौसे भी अधिक वर्षतक

विषयासक्त-चित्तसे मन्दरावलकी कल्दारामें रहे ॥ १३ ॥

तब, हे महाभाग ! एक दिन उस अप्सराने कण्डु

ऋषिसे कहा--'हे ब्रह्मन्‌ ¦ अब मैं स्वर्गलोकको जाना

चाहती हूँ, आप प्रसन्नतापूर्वक मुझे आज्ञा दीजिये

॥ १४ ॥ उसके पेसा कहनेपर उसमे आसक्त-चित्त हुए

मुनिने कहा--“भद्रे! अभी कुछ दिन और रहो"

॥ १५॥ उनके ऐसा कहनेपर उस सुन्दरीने महात्पा

कप्छुके साथ अगले सौ वर्षतक और रहकर नाना

प्रकारके भोग भोगे ॥ १६ ॥ तब भी, उसके यह पूछनेपर

कि 'भगवन्‌ ! मुझे स्वर्गल्ेककों जानेकी आज़ा दीजिये'

ऋषिने यहो कहा कि "अभी और उहरो' ॥ १७ ॥ तदनन्तर

सौ वर्षसे कुछ अधिक ब्रीत जानेपर उस सुमुखीने

प्रणययुक्त मुसकानसे सुशोभित बचनोंमें फिर कहा--

“ब्रह्मन्‌ ! अब मैं स्वर्गको जातो हूँ ॥ १८ ॥ यह सुनकर

मुनिने उस विशाल्तक्षीकों आल्किनलिकर कषा -- अयि

सुश्रु! अब तो तू बहुत दिनेकि लियें चली जायगी

इसलिये क्षणभर तो और ठहर” ॥ १९ ॥ तब वह सुश्रोेणो

(सुन्दर कमारी) उस ऋषिके साथ क्रीड़ा करतो हुई

दो सौ वर्षसे कुछ कम और रही ॥ २० ॥

है महाभाग ! इस प्रकार जब-जन वह सुन्दरौ

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