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अपामार्जनकं शस्तं सर्वरोगादिवारणम्‌॥ ४६॥ | शान्त हो । मैंने भगवान्‌ वासुदेवके शरीरसे प्रादुर्भूत

अहं हरिः कुशा विष्णुर्हता रोगा मया तव ॥ ४७ ॥ | कुशोंसे इसके रोगोंको नष्ट किया है । नर-नारायण

श्रीविष्णुके स्मरणमात्रसे पापसमूह तत्काल नष्ट | ओर गोविन्द - इसका अपामार्जन करं । श्रीहरिके

हो जाते हैं, इस सत्यक प्रभावसे इसके समस्त | वचनसे इसके सम्पूर्ण दुःखोंका शमन हो जाय।

दूषित रोग शान्त हो जाय । यज्ञेश्वर विष्णु देवताओंद्वार | समस्त रोगादिके निवारणके लिये * अपामार्जन-

प्रशंसित होते हैं; इस सत्यक प्रभावसे मेरा कथन | स्तोत्र" प्रशस्त है । मैं श्रीहरि हूँ, कुशा विष्णु हैं।

सत्य हो। शान्ति हो, मंगल हो। इसका दुष्ट रोग | मैंने तुम्हारे रोगोंका नाश कर दिया है ॥ ४२--४७॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'कुशाप्रामार्जन-स्तोत्रका वर्णन ' नामक इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥# २१५

[ ४०८ अलट2229 2,44०

बत्तीसवाँ अध्याय

निर्वाणादि-दीक्षाकी सिद्धिके उद्देश्यसे सम्पादनीय संस्कारोका वर्णन

अग्निदेव कहते हैं-- ब्रह्मन्‌! बुद्धिमान्‌ पुरुष | सहस्लेश यज्ञ-हिरण्याडूप्रि, हिरण्याक्ष, हिरण्यमित्र,

निर्वाणादि दीक्षाओंमें अड़तालीस संस्कार करावे। | हिरण्यपाणि, हेमाक्ष, हेमाङ्गं, हेमसूत्र, हिरण्यास्य,

उन संस्कारोंका वर्णन सुनिये, जिनसे मनुष्य | हिरण्याङ्ग, हेमजिह्न, हिरण्यवान्‌ और सब यज्ञोका

देवतुल्य हो जाता है। सर्वप्रथम योगिमें गर्भाधान, | स्वामी अश्वमेधयज्ञ तथा आठ गुण--सर्वभूतदया,

तदनन्तर पुंसवन-संस्कार करे। फिर सीमन्तोन्नयन, | क्षमा, आर्जव, शौच, अनायास, मङ्गल, अकृपणता

जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, चार | ओर अस्पृहा- यै संस्कार करे । इष्टदेवके मूल-

ब्रह्मचर्यव्रत वैष्णवी, पार्थी, भौतिकी और श्रौतिकी, | मन्त्रसे सौ आहुतियाँ दे । सौर, शाक्त, वैष्णव तथा

गोदान, समावर्तन, सात पाकयज्- अष्टका, अन्वष्टका | शैव -सभी दीक्षाओंमें ये समान माने गये ह । इन

पार्वणश्राद्ध, श्रावणी, आग्रहायणी, चैत्री एवं आश्वयुजी, | संस्कारोसे संस्कृत होकर मनुष्य भोग-मोक्षको

सात हविर्यज्ञ- आधान, अग्निहोत्र, दर्श, पौर्णमास, | प्राप्त करता दै । वह सम्पूर्ण रोगादिसे मुक्त होकर

चातुर्मास्य, पशुबन्ध तथा सौत्रामणी, सात | देववत्‌ हो जाता है । मनुष्य अपने इष्टदेवताके

सोमसंस्था --यज्ञश्रेष्ठ अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, | जप, होम, पूजन तथा ध्यानसे इच्छित वस्तुको

उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र एवं आप्तोर्याम; | प्राप्त करता है ॥ १--१३॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'निर्वाणादि-दीक्षाकी सिद्धिके उद्देश्यसे सम्परादनीव संस्कारोंका वर्णन!

नामक वत्तीसर्वां अध्याय पूरा हुआ॥ ३२॥

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