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काण्ड-१२ सूक्त- २ ९६

जो व्यक्ति क्रव्यादग्नि को शांत नहीं करता, उसकी कृषि, सेवनीय-वस्तु मूल्य देकर प्राप्त की गई वस्तुएँ

आदि समाप्तप्राय हो जाती हैं ॥३६ ॥

[ जो व्यक्ति क्रव्याद्‌ अग्नि से सम्बन्धित कार्य करके पितृऋण नहीं चुकाता, उसका लौकिक पुरुवार फलित रहीं होता ।]

३३९९. अयज्ञियो हतवर्चा भवति नैनेन हविरत्तवे ।

छिनत्ति कृष्या गोर्धनाद्‌ यं क्रव्यादनुवर्तते ॥३७ ॥

जो व्यक्ति क्रव्याद्‌ अग्नि को विलग नहीं करता, वह यज्ञ करने की अपनी पात्रता समाप्त कर देता है ।

तेजरहित व्यक्ति की हवि भी देवगण स्वीकार नहीं करते ।उस व्यक्ति के कृषि, गौएँ और ऐश्वर्य नष्ट हो जाते हैं ॥

३४००. मुहुर्गध्यै: प्र वदत्यार्ति मर्त्यो नीत्य । क्रव्याद्‌ यानग्निरन्तिकादनुविद्वान्‌ वितावति ॥

क्रव्याद्‌ अग्नि जिसके पीछे पड़ जाती है, वह व्यक्ति पीड़ाजनक स्थिति को प्राप्त होता है उसे आवश्यक

साधनों के लिए भी बारम्बार दीनतायुक्त वचनो का प्रयोग करना पड़ता है ॥३८ ॥

[ जो व्यक्ति यादि पुण्यकार्ो की अपेक्षा पाप कर्पा द्वारा सुख-साधन बटोरने का प्रयास करते हैं, उनके पीछे अग्नि का

उत्पीड़क प्रवाह लग जाता है । उसके सारे साथन उत्पीड़न करने में लग जाते हैं ।]

३४०१. ग्राह्या गृहाः सं सृज्यन्ते खिया यन्प्रियते पति: ।

ब्रह्मैव विद्वानेष्यो३ यः क्रव्यादं निरादधत्‌ ॥३९ ॥

जवे स्वी का पति मर जाता है, तब घर यातना- केन्द्र जैसे बन जाते हैं (उस समय) ज्ञानी ब्राह्मण (ब्रह्मनिष्ठ-

परमार्थपरायण) हौ बुलाने योग्य (परामर्श लेने योग्य) होता है । वह क्रव्याद्‌ अग्नि को शांतकर (उचित मार्ग का

निर्धारण कर) सकता है ॥३९ ॥

३४०२. यद्‌ रिप्रं शमलं चकृम यच्च दुष्कृतम्‌ ।

आपो मा तस्माच्छुम्भन्त्वग्नेः संकसुकाच्च यत्‌ ॥४० ॥

जो पाप, दोष और दुष्कर्म हमारे द्वारा किये गये हैं, उससे और प्रतदाहक अग्नि के स्पर्श से हमें जो दोष लगा

है, उससे जल हमें पवित्रता प्रदान करे ॥४० ॥

३४०३. ता अधरादुदीचीराववुत्रन्‌ प्रजानती: पथिभिर्देवयानैः ।

पर्वतस्य वृषभस्याधि पृष्ठे नवाश्चरन्ति सरितः पुराणीः ॥४९ ॥

जो जल देवों के गमन मार्ग से दक्षिण से उत्तर के स्थानों को घेरता है, तत्पश्चात्‌ वही प्राचीन जल नूतन रूप

होकर वर्षा करने वाले पर्वतीय शिखरों पर नदियों के रूप में प्रवाहित होता है ॥४१ ॥

३४०४. अग्ने अक्रव्यान्नि:क्रव्यादं नुदा देवयजनं वह ॥४२ ॥

है अक्रव्याद्‌ अग्निदेव ! आप क्रव्याद्‌ (मांस- भक्षक) अग्नि को हमसे पृथक्‌ करें । देवों की पूजन सामग्री

को देवों के समीप पहुँचाएँ ॥४२ ॥

३४०५. इमं क्रव्यादा विवेशायं क्रव्यादमन्वगात्‌ ।

व्याघ्रौ कृत्वा नानानं तं हरामि शिवापरम्‌ ॥४३ ॥

क्रव्याद्‌ अग्नि ने इस व्यक्ति में अपना प्रभाव जमा लिया है, यह व्यक्ति भो उस शवभक्षक का अनुगामी हो

गया है । मैं इन दोनों को व्याघ्रूप मानता हूँ । कल्याण से भिन्न अशिवरूप अनेकों को अपने साथ ले जाने वाली

क्रव्याद्‌ अग्नि को मैं विलग करता हूँ ॥४३ ॥

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