६ ] [ मत्स्य पुराण
दी
मध्ये चास्य रथः सर्वेपक्षिप्रवररंहस: ।
सुचारुचक्रचरणौ हैमवच्रपरिष्करतः ।४
देवगन्धर्वयक्षौघे रनुयातः सहस्रशः ।
दीप्तिमदिभः सदस्यैश्च ब्रह्मषिभिरभिष्टुतः ।५
वज्चविस्फूर्जितोद्भुतेविद्य दिन्द्रायूधादितेः ।
युक्तो बलाहकगणेः पवंतैरिव कामगैः ।६
यमारूढ़: सं भगवान् पर्येति सकलं जगत् ।
हविधनिषु गायन्ति विप्रा मखमुखे स्थिताः ।७
श्री मत्स्य भगवान् ने कहा--हे रविनन्दन ! तुमने दैत्यों कौसेना
के विस्तार का वर्णन श्रवण गत कर लिया है | अब सुरगणो की सेना
का भी वैष्णव विस्तार श्रवण करलो । इादश आदित्य---आठ वसुगण
एकादश रुद्र-महान् बल सम्पन्न अश्विनीकुमार ये सब बलों और अनु-
गामियों के सहित क्रम के अनुसार ही सन्नद्ध हो गये , थे ।१-२। समझ
में सहस्न नेत्री वाले इन्द्रदेव-समस्त लोकपाल-सब देवों की ग्रामणी सुरों
के शत्रु पर समारोहण करने वाले हो गये थे ।३। मध्य में समस्त
पक्षियों में श्रेष्ठ (गरुड़)के वेग वाले इनका सुचारु (सुन्दर चक्र) चरणों
वाला हेम और वचसे परिष्कृत रथ था ।४ उस रथ के पीछे सहस्रं
देव-गन्धवं और यक्षों समुदाय अनुगमन करने वाले थे तथा वे दीप्ति-
मान सदस्यों के द्वारा और ब्रह्मषियों के द्वारा अभिष्टुत हो रहे थे
।५। वचर के तुल्य विस्फूजित एवं अदुभुत---विद्युत और इन्द्रायुधों से
समुदित स्वेच्छया गमन करने वाले पवतौं के समान बलाहकौ के गणी
से युक्त थे ।६। जिस रथ पर वह भगवान् समारूढ़ थे वह रथ समस्त
जगत में परिगमन करता था ओर यज्ञशालाओं में समवस्थित विभ्रगण
हविर्धानि में गायन किया:करते थे ।७।
स्वर्गे शक्रानुयातेषु देवतूयेनिनादिषु ।
सुन्दयः परिनृत्यन्ति शतशोऽप्सरसा ज्गणे ।८