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६२ ऋगवेद संहिता पाग-१

५२०. अद्या दृतं वृणीमहे वसुपग्निं पुरुप्रियम्‌ ।

धूमकेतुं भाऋजीकं व्युष्टिषु यज्ञानापध्वरश्रियम्‌ ।।३॥

उपाकाल पें सम्पन हाने वाले यज्ञ, जो धूम्र को पताका एवं ज्वालाओं से सुशोभित है, ऐसे सर्वप्रिय देवदूत,

सबके आश्रय एवं पान्‌ अग्निदेव को हम ग्रहण करते हैं और श्री सम्पन्न बनते हैं ॥३ ॥

५२९१. श्रेष्ठ यविष्ठमतिथिं स्वाहुतं जुष्टं जनाय दाशुषे ।

देवां अच्छा यातवे जातवेदसमग्निमीके व्युष्टिषु ॥४ ॥

हम सर्वश्रेष्ठ, अतियुवा, अतिथिरूप, वन्दनीय, हविदाता, यजमा दवारा पूजनीय, आहवनीय, सर्वज्ञ अग्निदेव

कौ प्रतिदिन स्तुति करते हैं । वे हमें देवत्व की ओर ले चलें ॥४ ॥

५२२. स्तविष्यामि त्वामहं विश्वस्यामृत भोजन ।

अग्ने त्रातारमपृतं मियेध्य यजिष्ठं हव्यवाहन ।॥५ ॥

अविनाशो. सबको जीवन (भोजन) देने वाले, हविवाहक, विश्व का प्राण करने वाले, सबके आराध्य, युवा

है अग्निदेव ! हम आपको स्तूति करते हैं ॥५ ॥

५२३. सुशंसो बोधि गृणते यविष्ठ्य मधुजिह्वः स्वाहुतः ।

प्रस्कण्वस्य प्रतिरन्नायुर्जीवसे नमस्या दैव्यं जनम्‌ ॥६ ॥

मधुर जिह्नावाले, याजक कौ स्तुति के पात्र, हे तरण अग्निदेव ! भलो प्रकार आहुतियाँ प्राप्त करते हुए

आप याजको को आकांक्षा को जाने । प्रस्कण्व (ज्ञानियों) को दीर्घं जीवन प्रदान करते हुए आप देवगणों को

सम्मानित करें ॥६ ॥

५२४ होतारं विश्ववेदसं सं हि त्वा विश इन्धते ।

स आ वह पुरुहूत प्रचेतसोऽग्ने देवां इह द्रवत्‌ ।७ ॥

होता रूप सर्वभूतो के ज्ञाता, है अग्निदेव ! आपको प्नुष्यगण सम्यक्‌ रूप से प्रज्वलित करते है । बहुतो

द्वारा आहूत किये जाने वाते हे अग्मिदेव ! प्रकृष्ट ज्ञान सम्पन्न देवो को तीत्र गति से यज्ञ मे लाये ॥७ ॥

५२५. सवितारमुषसमश्चिना भगमग्नि व्युष्टिषु क्षपः।

कण्वासस्त्वा सुतसोमास इन्धते हव्यवाहं स्वध्वर ॥८ ॥

श्रेष्ठ यज्ञों को सम्पन्न करने वाले हे अग्निदेव ! रात्रि के पश्चात्‌ उषाकाल मे आप सविता, उषा, दोनों

अश्विनोकुषारों, भग और अन्य देवों के साथ यहाँ आयें । सोम को अभिषुत करने वाले तथा हवियों को पहुँचाने

वाले ऋत्विगगण आपको प्रज्वलित करते हैं ॥८ ॥

५२६. पतिद्वीध्वराणामग्ने दूतो विशापसि ।

उषर्बुध आ वह सोमपीतये देवां अद्य स्वर्दृशः ॥९ ॥

है अग्निदेव ! आप साधको द्वारा सम्पन होने वाले यज्ञो के अधिपति और देवों के दूत है । उषाकाल में

जाग्रत्‌ देव आत्माओं को आज सोपपान के निपित्त यहाँ यज्ञस्थल पर लायें ॥९ ॥

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