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+ पुराणौ परमं पुण्य॑ भविष्य सर्वसौर्यदम् +
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडू
वचनकों सुनकर ऋगेनि कहा--'माँ ! यह छल तो हमलोग
नहीं करेंगे, चाहे तुम्हारी जीत हो या हार् । छलसे जीतना बहुत
बड़ा अधर्म है ।' पुत्रोंका यह वचन सुनकर कटने करुद्ध होकर
कहा--तुपलोग मेरी आज्ञा नहीं मानते हो, इसलिये मैं सुम्हें
जाप देती हूँ कि 'पाष्डवॉके वैत्ामें उत्पन्न राजा जनमेजय जब
सर्प-सत्र करेंगे, तब उस यज्ञम तुम सभी अग्निमें जल
जाओगे ।' इतना कहकर कदू चुप हो गयी। नागगण माताका
शाप सुनकर बहुत घबड़ाये और वासुकिकों साथमे लेकर
बरह्माजौके पास पहुँचे तथा ब्रह्माजोकों अपना सारा वृत्तान्त
सुनाया । इसपर ब्रह्माजोने कहा कि वासुके ! चिन्ता मत करो ।
मेरी बात सुनो--यायावर-सैत्ामें बहुत बड़ा तपस्वी जरत्कारू
नामके ब्राह्मण उत्पन्न होगा । ठसके साथ तुप अपनी जरत्कारु
नामयारछी वहिनका विवाह कर देना और यह जो भी कहे,
उसका कचन स्वीकार करना | उसे आस्तीक नामका विख्यात
पुत्र उत्पन्न होगा, वह जनमेजयके सर्पयज्ञको रोकेगा और
तुमत्मेगोंकी रक्षा करेगा । ब्रह्माजोके इस वचनको सुनकर
नागगज वासुकि आदि अतिशय प्रसन्न हो, उन्हें प्रणाम कर
अपने व्पेकमें आ गये।
सुपन्तु मुनिने इस कथाको सुनाकर कहा-- राजन् !
यह यज्ञ तुम्हारें पिता राजा जनमेजयने किया था। यही बात
श्रीकृष्णभगवान्ते भी युधिष्ठिरसे कहौ थी कि 'राजन् ! भजसे
सौ वर्षके बाद सर्पयज्ञ होगा, जिसमें बड़े-बड़े विषघर और दुष्ट
नाग नष्ट हो जायैंगे। करोड़ों नाग जब अग्रिम दग्ध होने लगेंगे,
तब आस्तीक नामक ब्राह्मण सर्पयज्ञ रोककर नागोंकी रक्षा
करेगा । ब्रह्माजीने पक्रमीके दिन यर दिया था और आस्तीकं
सुनिने पद्रणीकों ही नागोंकी रक्षा को थी, अतः पञ्चम तिथि
नागो बहुत प्रिय रै" ।
पञ्चमीके दिन नागोंको पूजाकर यह प्रार्थना करनी चाहिये
कि जो नाग पृथ्वीमें, आकाशमें, स्वर्गे, सूर्यकी किरणोमें,
सरोवरोमे, वापी. कृप, तालाब आदियें रहते हैं, खे सब हमपर
प्रसन्न हों, हम उनको बार-बार नमस्कार करते हैं।
सर्वे नागा: प्रीयत्तां पे थे केखित् पृधिलीतले ॥
ये च हेलिमरीचिस्था येउन्तरे दिखि सैस्थिता: ।
ये नदीषु महानागा ये सरस्वतिगामिनः।
ये च वापीतद्भगेषु तेषु सर्वेषु वै नमः॥
(ब्राह्मपर्च ३२। ४३-३४)
इस प्रकार नागोंकों विसर्जित कर ब्राह्मणोंकों भोजन
कराना चाहिये और स्वयं अपने कुटुम्बियोकि साथ भोजन
करना चहिये । प्रधम मौठझा भोजन करना चाहिये, अनन्तर
अपनो अभिरुचिके अनुसार भोजन करे ।
इस प्रकार नियमानुसार जो पञ्जमीको नागॉका पूजन
करता है, यह श्रेष्ठ विमानमें बैठकर नागललोकको जाता है और
आदमें द्वापरयुगर्में बहुत पराक्रमी, ग्रेगरहित तथा प्रतापी राजा
होता है। इसलिये घी, खीर तथा गुगगुलसे इन नागोंकी पूजा
करनी चाहिये।
राजाने पूछा--महाराज ! क्रुद्ध सर्पके काटनेसे
परमेवाला व्यक्ति किस गतिकों प्राप्त होता है और जिसके
माता-पिता, भाई, पुत्र आदि सर्पके काटनेसे मे हों, उनके
उद्धारके लिये कौन-सा त्रत, दान अथवा उपवास करना
चाहिये, यह आप वताय ।
सुमन्तु मुनिने कहा -- राजन् ! सर्पके काटनेसे जो मरता
है, बह अधोगतिकों प्राप्त होता है तथा निर्विष सर्प होता है और
जिसके माता-पिता आदि सर्पके काटनेसे मरते हैं, वह उनकी
सद्रतिके लिये भाद्रपदके शुक्त पक्षकी पञ्चमी तिथिको उपवास
कर नागॉकी पूजा करें । यह तिथि महापुण्या कहो गयौ है ।
इस प्रकार बारह महोनेतक चतुर्थी तिधिके दिन एक वार
भोजन करना चाहिये और पशञ्षमीकों व्रतकं नागोंकी पूजा
करनी चाहिये। पृथ्वीपर नागोंका चित्र अङ्कित कर अथवा
सोना, काष्ठ या मिट्टीका नाग बनाकर पल्लमोके दिन करवोर,
कमल, चमेलौ आदि पष्य, गन्ध, धृप और विविध नैवेदोसे
उनको पूजा कर धो, खोर और लड्डू उलप पाँच ब्राह्मणोंका
खिलाये। अनन्त, वासुकि, शंख, पदम, कैबल, कर्कटक,
१-प्धप्यौ तञ धाव ब्रह्म परेश्च लेलिहान् । कस्मादिये पदयो पद्ध दवता खट ।
नागानामान्टकरो दत्ता वै ब्रह्मणा पुरा ॥
( क्र्यपवं ३२ | ३२३
२-वर्तमानमें नागपक्षमी प्रायः सभो पञाङ्गौ तथा त्रके निबनन्ध-प्रन्योंके अनुसार खण शुक्क पश्षमोकों होतो है। यहाँ या तो पाठ अशुद्ध है
या कात्मन्तापें कथी धाद्रपदये नाणपछपै सतायी जाती रही होगी।