एकादशोऽध्यायः ११.३
४४४. योगे-योगे तवस्तरं वाजे वाजे हवामहे । सखाय 5 इन्द्रमूतये ॥१४॥
अन्यो की अपेक्षा अति सामर्थ्यवान् इन्द्रदेव को हम सभौ पारस्परिक मित्रता बढ़ाने वाले प्रत्येक कार्य में
अपनी सुरक्षा के निमित्त एवं प्रत्येक संघर्ष में सहयोग के लिए आवाहित करते हैं ॥१४ ॥
४४५. प्रतूर्वश्नेह्ञबक्रामन्नशस्ती रुद्रस्य गाणपत्यं मयोभूरेहि। उर्वन्तरिक्षं॑वीहि
स्वस्तिगव्यूतिरभयानि कृण्वन् पृष्णा सयुजा सह ॥९५॥
हे तीव्र गतिशील (अग्नि-तेजस्) ! दुष्टों का विनाश (अन्धकार-विकार- का विनाश) करते हुए, हमें (यजमान
को) सुख (प्रकाश) प्रदान करने के लिए आप पधार, ऐसा करने से आपको रुद्र (द को दण्डित करके रुलाने वाले
देवता) का गणपतित्व प्राप्त होगा । ( हे रासभ !) तुम ऋत्विज्. यजपानों को निर्भयता प्रदान करते हुए, पृथिवी
सहित विशाल अन्तरिक्ष तक कल्याणकारी अत्र-जलयुक्त मार्ग से व्याप्त हो जाओ (पहुँच जाओ) ॥१५ ॥
४४६. पृथिव्याः सथस्थादर्ग्नि पुरीष्यमड्रिरस्वदाभराग्निं पुरीष्यमड्डिरस्वदच्छेमोरग्नि
पुरीष्यमड्डिरस्वद्धरिष्याम: ॥१६॥
हे अप्रे | (यज्ञ उपकरणों) आप धरती पर सभी का पालन-पोषण करने वाले, सर्व समर्थ, तेजस्वी, ( श्रेष्ठंता
की दिशा में ) अग्रणी रहने वालों के पोषक, अग्निदेव को यहाँ लां, जो पोषण की सामर्थ्य से युक्त है शत्रु-विनाशक
तथा नेतृत्व-कुशलता से युक्त हैं हम विशिष्ट पोषण- क्षमता सम्पन्न, अंगिरा के समान तेजस्वी उन अग्निदेव को
अपने यज्जञस्थल में प्रतिष्ठित करेंगे ॥१६ ॥
४४७. अन्वग्निरुषसामग्रमख्यदन्वहानि प्रथमो जातवेदाः । अनु सूर्यस्य पुरुञा च रश्मीननु
द्यावापृथिवी आततन्थ ॥१७ ॥
ऋषि यहाँ सर्व प्रकाशक, लोकखरष्टा आदि ऊर्जा को- अग्नि छो-अपनी दिव्य दृष्टि से देखा रहे है । उसी के प्रधाव का वर्णन
अगले बभे भिक गया हे । उसी को वाजिन्-यलशाली -दुतगापी कहकर विशिष्ट यजीय प्रयोजनो के लिए स्तुतियों वारा
जा रहा है--
पहले से ही विद्यमान वे अग्निदेव उषा काल से पहले ही दिन को प्रकाशित करते है । वही सूर्य की बहुत
सारी किरणों को भी प्रकाशित करते हैं । हम उन लोक-स्रष्टा अग्निदेव को चुलोक और पृथ्वीलोक में क्रमबद्ध
रूप से संचरित होता हुआ अनुभव करते हैं ॥१७ ॥
४८. आगत्य वाज्यध्वानश सवां मृधो विधूनुते । अग्निर सधस्थे महति चक्षुषा नि
चिकीषते ॥१८ ॥
वह वाजी {बलवान् एवं द्रुतगामी चेतना-युक्त ऊर्जा) मार्ग पर संचरित होकर युद्ध ( तमस् के बिनाश के क्रम
में) क्षेत्र को कैंपाता हुआ चलता है । वह स्थिर दृष्टि से यज्ञाग्ि का निरीक्षण करता है ॥१८ ॥
| य यज्ञीय ऊर्जा के साथ दिव्य ऊर्जा के संयोग का संकेत है ॥|
४४९. आक्रम्य वाजिन् पृथिवीमग्निमिच्छ रुचा त्वम्। भूम्या वृत्वाय नो ब्रूहि यतः खनेम
तं वयम् ॥१९॥
हे वाजिन् ! आप पृथ्वी पर तीव्र गति से संचरित होकर, "अगि" की खोज करें । भूमंडल को खोज
कर हमें ( वह स्थल) बताएं, जहाँ से हम उसे (अग्नि को अर्थात् ऊर्जा उत्पन्न करने वाले पदार्थों को) खोद
कर ले आएँ ॥१९ ॥
(यहाँ में प्रयुक्त होते वाले खनिज की शोय का संकेत है ।]