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आ०२ ]

= कुतीर्था्कन्थै «

१८२

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देवकौ-वसुदेवकी चरण-वन्दना करके कहा था--

"पिताजी, माताजी ! कंसका बड़ा भय रहनेके कारण

मुझसे आपकी कोई सेवा न बन सकी, आप मेंरे इस

अपराघपर ध्यान न देकर मुझपर प्रसन्न हों।' श्रीकृष्णकी

ये बातें जब याद आती हैं, तब आज भी मेरा चित्त

अत्वन्त व्यथित हो जाता है॥ १७॥ जिन्होंने कालरूप

अपने भ्रुकुटिविल्मससे हो पृथ्वीका सारा भार उतार दिया

था, उन श्रीकष्णके पाद-पद्य-परागका सेवन करनेवाला

ऐसा कौन पुरुष है, जो उसे भूल सके ॥ १८॥

आपलोगोनि राजसूय यज्ञे प्रत्यक्ष ही देखा था कि

श्रोकृष्णसे द्वेष करनेवाले शिशुपालको वह सिद्धि मिल

गयी, जिसकी बड़े-बड़े योगी भली-भाति योग-साधना

करके स्पृहा करते रहते है । उनका विरह भला कौन सह

सकता है॥१९॥ शिशुपालके ही समान

महाभारत -युद्धमे। जिन दूसरे योद्धाओनि अपनी आंखोमे

भगवान्‌ श्रीकृष्णके नयनाभिराम मुख-कमलक् मकरन्द

पान करते हुए, अर्जुनके बाणोंसे बिंधकर प्राणत्याग

किया, वे पवित्र होकर सब-के-सब भगवान्के

परमधामको प्राप्त हो गये ॥ २० ॥ स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्ण

तीनों लोकोकि अधीश्वर है । उनके समान भी कोई नहीं है,

उनसे बढ़कर तो कौन होगा । वे अपने स्वतःसिद्ध ऐश्वर्यसे

ही सर्वदा पूर्णकाम हैं। इन्द्रादि असख्य लोकपालगण

नाना प्रकारकी भटे ला-लाकर अपने-अपने मुकुटोंके

अग्रभागसे उनके चरण रखनेकी चौकीको प्रणाम किया

करते ह ॥ २१॥ विदुरजी ! वे ही भगवान्‌ श्रीकृष्ण

राजसिंहासनपर बैठे हुए उग्रसेनके सामने खड़े होकर

निवेदन करते थे, "देव ! हमारी प्रार्थना सुनिये।' उनके

इस सेवा-भावकी याद आते ही हम-जैसे सेवकॉका चित्त

अत्यन्त व्यधित हो जाता है ॥ २२ ॥ पापिनी पूतनाने अपने

स्तनोमे हलाहल विष लगाकर श्रीकृष्णको मार डालनेकी

नीयतसे उन्हें दूध पिलाया था; उसको भी भगवानने वह

परम गति दी, जो धायकों मिलनी चाहिये। उन भगवान्‌

श्रीकृष्णके अतिरिक्त और करन दयालु है, जिसकी शरण

ग्रहण करें॥२३॥ मैं असुरोंको भी भगवान्‌का भक्त

समझता हूँ; क्योंकि वैरभावजनित क्रोधके कारण उनका

चित्त सदा श्रीकृष्णमें लगा रहता था और उन्हें रणभूमिमें

सुदर्शन-चक्रधारी भगवान्‌को कंधेपर चढ़ाकर झपटते हुए

गरुडजीके दर्शन हुआ करते थे ॥ २४॥

बरह्माजीकी प्रार्थनासे पृथ्वीका भार उतारकर उसे

सुखी करनेके लिये कंसके काणगारमें वसुदेव-देवकीके

यहाँ भगवानने अवतार लिया था॥२५॥ उस्र समय

कंसके डरसे पिता वसुदेवजीने उन्हें नन्‍दबाबाके ब्रज

पहुँचा दिया था। वहाँ वे बलरामजीके साथ ग्यारह

वर्षतक इस प्रकार छिपकर रहे कि उनका प्रभाव ब्रजके

बाहर किसोपर प्रकट नहीं हुआ ॥ २६॥ यपुनाके

उपवनमे, जिसके हरें-भरे वृक्षोपर कलरव करते हुए

पक्षियोंके झुंड-के-झुंड रहते हैं, भगवान्‌ श्रीकृष्णने

बछड़ोंको चराते हुए ग्वाल-बालॉकी मण्डलीके साथ

विहार क्रिया था ॥ २७॥ बे ब्रजवासियोंकी दृष्टि आकृष्ट

करनेके लिये अनेकों बाल-लीला उन्हें दिखाते थे। कभी

रोने-से लगते, कभी हँसते और कभी सिंह-शावकके

समान मुग्ध-दृष्टिसे देखते ॥ २८ ॥ फिर कुछ बड़े होनेपर

वे सफेद बैल और रंग-बिरंगी शोभाकी मूर्ति गौओंको

चरते हुए अपने साथी गोपोंको बाँसुरी बजा-बजाकर

रिझाने लगे॥ २९ ॥ इसी समय जब कंसने उन्हें मारनेके

लिये बहुत-से मायावी ओर मनमाना रूप धारण

करनेवाले राक्षस भेजे, तब उनको खेल-ही-खेलमें

भगवानते मार डाला--जैसे यालक खिलौनोंको

तोड़-फोड़ डालता है ॥ ३० ॥ कालियनागका दमन करके

विष मिला हुआ जल पीनेखे मरे हुए ग्वालबालों और

गौओंको जीवितकर उन्हें कालियदहका निर्दोष जल

पीनेकी सुविधा कर दी ॥ ३१॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने बढ़े

हुए घनका सदत्यय करानेकी इच्छसे श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके द्वारा

नन्दबावासे गोवर्धन-पूजारूप गोयज्ञ करवाया ॥ ३२ ॥

भद्र! इससे अपना मानभड़ होनेके कारण जव इन्द्रने

क्रोधित होकर ब्रजका विनाश करनेके लिये मूसलधार

जल बरसाना आरम्भ किया, तब भगवानने करुणावश

खेल-हो-खेलमें छत्तेके समान गोवर्धन पर्वतको उठा

लिया और अत्यन्त घबयये हुए ्रजवासिरयोकी तथा उनके

पशुओंकी रक्षा की॥ ३३ ॥ सन्ध्याके समय जब सरे

वृन्दावने शरद्के चनद्रमाकी चाँदनी छिटक जाती, तब

श्रीकृष्ण उसका सम्मान करते हुए मधुर गान करते और

गोपियोंके मण्डलकी शोभा बढ़ाते हुए उनके साथ

रासविहार करते॥ ३४ ॥

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