* रखसंहिता +
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नहीं है। भेद् आननेपर अवश्य हौ बन्धन
होगा। तथापि मैरा शिवरूप ही सनातन है ।
यही सदा सच रूपॉका मूलभूत कहा गया
दै! बह सत्य, ज्ञान एतं अन्त जहा है \*
ऐसा जानकर सदा मनसे मेरे चथार्थ-
स्वरूपका दर्झन॑ करना चाहिये। ब्हान् !
सुनो; मैं तुम्हें एक गोपनीय बात खता रहा
हैँ। मैं स्वयं ब्रह्माजीकी श्रुकुटिसे प्रकट
होऊँगा । गुणोंमें भी मेरा प्राकर कहां गया
है। जैसा कि लोगोंने कहा हैं 'हर॑ तामस
प्रकृतिके हैं।' यास्तवमें उस रूपें
अहंकारका वर्णन हुआ है। उत्त अहंकारको
केयल तापस ही नहीं, बैकारिक
(खातक) भी समझना चाहिये (क्योंकि
सास्विक देवगण वैंकारिक अहंकारकी ही
सृष्टि हैं) । यह तामस और सात्त्विक आदि
भेद केवल नाममात्रका है, वस्तुतः नहीं है।
खास्तवमेँ 'हर'की तापस नहीं कहां जा
सकता। ब्रह्म ! इस कारणसे तुम्हें ऐसा
करना अआहिये ) तुम तो इस सुषटिके निर्माता
नो और श्रीहरि इसका पालन करें तथा मेरे
अंश्लसे प्रकट होनेवाले जो र्द है, वे इसका
प्रस्य करनेवाले होगे । ये जो "उमा" नामसे
विख्यात परयेश्चरी प्रकृति देवी हैं, इन्हींकी
त्यत खाए्टेदी अहजीका सेवन
करेंगी। फिर इन प्रकृति देवीसे वहां जो
दूसरी शाक्ति भरकट होगी वे ललक्ष्मीरूपसे
भगवान् विष्णुका आश्रय लेंगी। तदनन्तर
पुनः काल्नी नामसे जो तीसरी शाक्ति प्रकट
होंगी, वे निश्चय ही पेरे अंशभुत स्द्रदेयको
* मूलभूतं सदोए़ च सत्यज्ञानभनन्तकम ॥
प्न होगी । वे कार्यकी सिद्धिके लिये वहाँ
ज्योत्तिरूपसे भ्रकट होगी । इस अकार मैंने
देखीकी शुभस्वरूपा परादक्तियोंका परिचेय
हियः \ उनका कार्य क्रमश: सृष्टि, पातन
और संहारका सम्पादन ही है । सुरश्रेष्ठ ! ये
सन-की-सव मेरी प्रिया प्रकृति देवीकी
अंशभूता हैं। हरे | तुम लक्ष्मीका सहारा
लेकर कार्य करो । ब्रह्मन् ! तुम्हें प्रकृतिकी
अंङापृता वाग्देबीको पाकर मेरी आज्ञाके
अनुसार मनसे सुष्टिकार्यका संचालन करना
चाहिये और मैं अपनी प्रियाकी अंज्ञाभूता
परात्पर क्ालीका आश्रय ले रुद्ररूपसे
श्रल्य-सप्यन्धी उत्तम कार्य करूँगा। तुम
सब्र लोग अवक्ष्य ही सम्पूर्ण आश्रमो तथा
उनसे भिन्न अन्यान्य चिचिध्च कार्योद्वारा खारों
व्णेसि भरे हुए ल्मेककी सृष्टि एवं रक्षा
आदि करके सुख पाओगे। हरे ! तुम ज्ञान-
विज्ञाससे सम्पन्न तथा सम्पूर्ण .छोकोंके
हितैषी हो । अतः अब मेरी आज्ञा पाकर
जगतमें सच ललोगॉंके लिये मुक्तिदाता नो ।
मेरा दर्शन होनेपर जो फल प्राप्त होता है, वही
तुम्हारा दर्शन होनेपर भी होगा । पेरी यह बात
सत्य है, सत्य है, इसमें संशायके लिये स्थान
नहीं है। मेरे हृदयमें विष्णु हैं और विष्णुके
ददप चै द \ जो इन दोनो अन्तर नहीं
समझता, वही मुझे किरोय प्रिय है ।; श्रीहरि
मेरे जायें अङ्गसे प्रकट हुए हैं। ब्रह्माका
दाहिने अंड्रसे प्राकव्य हुआ है और
महाप्रत्लयकारी विश्वात्मा र्द मेरे हृदयसे
आदुर्भूत होंगे। विष्णो ! मैं ही स्ुष्टि, पालन
(फिर पुर रू सू" ९।४०)
. * मपैच इृदये विध्णुर्विष्णो॥ बटु यहम् ॥ उभयोरनरि यो नै न जानै मतो मा ।
स॑र शि० पुर्( मोटा टाइप ) ५--
{शिन फु रगु ९। ५५-०६)