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तथा विधवाओंको दूसरे दिनकी तिथि (द्वादशी)

स्वीकार करनी चाहिये। यदि पूरे दिनभर शुद्ध

एकादशी हो, द्वादशीमें उसका तनिक भी योग न

हो तथा द्वादशी त्रयोदशीमें संयुक्त हो तो वहाँ कैसे

व्रत रहना चाहिये--इसका उत्तर देते हैं--गृहस्थोंको

पूर्वकी (एकादशी) तिथिमें व्रती रहना चाहिये

और विरक्तं साधुओंकों दूसरे दिनकी (द्वादशी)

तिधिमें। कोई-कोई विद्वान्‌ ऐसा कहते हैं कि सब

लोगोंको दूसरे दिनकौ तिथिमें ही भक्तिपूर्वक

उपवास करना चाहिये। जब एकादशी दशमौसे

विद्ध हो, द्वादशौ उसकी प्रतीति न हो और

द्वादशी त्रयोदशीसे संयुक्त हो तो उस दशामें

सबको शुद्ध द्वादशी तिथिमें उपवास करना चाहिये-

इसमें संशय नहीं है । कुछ लोग पूर्व तिथिमें व्रत

कहते हैं; किंतु उनका मत ठीक नहीं है।

जो रविवारको दिनमें, अमावास्या और पूर्णिमाको

रातमें, चतुर्दशी और अष्टमी तिथिको दिनमें तथा

एकादशी तिथिको दिन और रात दोनोंमें भोजन

कर लेता है, उसे प्रायश्षित्तरूपमें चान्द्रायण-व्रतका

संक्षिप्त नारदपुराण

अनुष्ठान करना चाहिये। सूर्यग्रहण प्राप्त होनेपर

तीन पहर पहलेसे ही भोजन. न करे । यदि कोई

कर लेता है तो वह मदिरा पीनेवालेके समान होता

है। मुनिश्रेष्ट! यदि अग्न्याधान और दर्शपौर्णमास

आदि यागके बीच चन्द्रग्रहण अथवा सूर्यग्रहण हो

जाय तो यज्ञकर्ता पुरुषोंको प्रायश्चित्त करना चाहिये।

ब्रह्मन्‌! चन्द्रग्रहणमें “दशमे सोमः' 'आप्यायस्व'

तथा 'सोमपास्ते' इन तीन मन्त्रोंसे हवन करें। और

सूर्यग्रहण होनेपर हवन करनेके लिये "उदुत्यं

जातवेदसम्‌', ' आसत्येन', 'उद्बय॑ तमस: '--ये तीन

मन्त्र बताये गये हैं। जो पण्डितं इस प्रकार

स्मृतिमाग्सि तिधिका निर्णय करके व्रत आदि

करता है उसे अक्षय फल प्राप्त होता है। वेदे

जिसका प्रतिपादन किया गया है वह धर्म है।

धर्मसे भगवान्‌ विष्णु संतुष्ट होते हैं। अतः

धर्मपरायण मनुष्य भगवान्‌ विष्णुके परम धाममें

जाते हैं। जो धर्माचरण करना चाहते हैं, वे साक्षात्‌

भगवान्‌ कृष्णके स्वरूप हैं। अतः संसाररूपी रोग

उन्हें कोई बाधा नहीं पहुँचाता।

विविध पापोंके प्रायश्चित्तका विधान तथा भगवान्‌ विष्णुके आराधनकी महिमा

श्रीसनकजी कहते है -- नारदजी ! अब मैं | करनेवाला पुरुष पाँचवाँ महापातकी है । जो इनके

प्रायश्चित्तकों विधिका वर्णने करूँगा, सुनिये! सम्पूर्ण

धर्मोका फल चाहनेवाले पुरुषोंको काम-क्रोधसे

रहित धर्मशास्त्रविशारद ब्राह्मणोंसे धर्मकी बात

पूछनी चाहिये। विप्रवर! जो लोग भगवान्‌ नारायणसे

विमुख हैं, उनके द्वारा किये हुए प्रायश्चित्त उन्हें

पवित्र नहीं करते; ठीक उसी तरह जैसे मदिराके

पात्रकों नदियाँ भी पवित्र नहीं कर सकतीं।

ब्रह्महत्यारा, मदिरा पीनेवाला, स्वर्ण आदि वस्तुओंकी

चोरी करनेबाला तथा गुरुपब्रीगामी-ये चार

महापातकी कहे गये हैं। तथा इनके साथ सम्पर्क

साथ एक वर्षतक सोने, बैठने और भोजन करने

आदिका सम्बन्ध रखते हुए निवास करता है, उसे

भी सब कर्मांसे पतित समझना चाहिये । अज्ञातवश

ब्राह्मणहत्या हो जानेपर चौर-वस्त्र ओौर जटा

धारण करे और अपने द्वारा मारे गये ब्राह्मणकी

कोई वस्तु ध्वज-दण्डमें बाँधकर उसे लिये हुए वनमें

घूमें। वहाँ जंगली फल-मूलोंका आहार करते हुए

निवास करे। दिनमें एक बार परिपित भोजन करें।

तीनों समय सान ओर विधिपूर्वक संध्या करता रहे।

अध्ययन और अध्यापन आदि कार्य छोड दे।

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