Home
← पिछला
अगला →

उक्त लिङ्गकौ लंबाईको आधा करके उसमें | उनमें एक-एक यबकी वृद्धि करनेसे वे सब आठ

आठसे भाग देनेपर यदि शेष सातसे अधिक हो | प्रकारके लिङ्ग होते हैं। फिर हस्तमानसे “जिन”

तो वह लिङ्ग 'आढ्य' कहा जाता है। यदि पाँचसे | संज्ञक लिङ्गके भी तीन भेद होंगे। उसको सर्वसम

अधिक शेष रहे तो वह 'अनाढ्य' है। यदि छः | लिङ्गे जोड लिया जायगा॥ २५--२९॥

अंशसे अधिक शेष हो तो वह लिङ्ग 'देवेज्य' है|. अनाढघ, देवार्चित तथा अर्कतुल्यमें भी पाँच-

और यदि तीन अंशसे अधिक शेष हो तो उस | पाँच भेद होनेसे ये पच्चीस होंगे। ये सब एक,

लिङ्गको 'अर्कतुल्य' माना जाता है। ये चारों ही जिन और भक्त-भेदोंसे पचहत्तर हो जायँगे।

प्रकारके लिङ्ग चतुष्कोण होते हैं। पाँचवाँ वर्धमान ' | सबका आकलन करनेसे पंद्रह हजार चार सौ

संज्ञक लिङ्गं है, उसमें व्याससे नाह बढ़ा हुआ | शिवलिङ्ग हो सकते हैँ ।* इसी तरह आठ अङ्गुलके

होता है। व्यासके समान नाह एवं व्याससे बढ़ा | विस्तारवाला लिङ्ग भी एकान्रुल मान, हस्तमान

हुआ नाह --इस प्रकार इन लिङ्गके दो भेद हो | एवं गर्भमानके अनुसार नौ भेदोंसे युक्त है। इन

जाते है । विश्वकर्म शास्तरके अनुसार इन सबके | सबके कोण तथा अर्द्धकोणस्थ सूत्रोंद्वारा कोणोंका

बहुत-से भेद बताये जायँगे। आढ्य आदि लिङ्खोकी | छेदन (विभाजन) करे। लिङ्गके मध्यभागके

स्थुलता आदिके कारण तीन भेद और होते हैँ । | विस्तारको ही प्रत्येक विभागका विस्तार मानकर,

* अग्निपुराण अध्याय ५४ के २८वें श्लोकमें विश्वकर्माके कथनानुसार लिङ्ग - पेदोकी परिगणना की गवौ है और सव मिलाकर

चौदाह हजार चौदह सौ भेद कहे गये हि । इस प्रकरणका मूल पाठ अपने शुद्धरूपमें उपलब्ध नहीं हो रहा है; अतएव यहाँ दी हुई गणना

चैट वहीं रही है। परंतु विश्वकर्ाकि शास्त्र 'अपराजितपृच्छा' के अवलोकतसे इन भेदोपर विशेष प्रकाश पड़ता है। उसके अनुसार समस्त

लिङ्ग-भेद १४४२० होते हैं। किस प्रकार, सो बताया जाता है~- प्रस्वरमव लिङ्गं कम-से-कम एक हाथका होता है, उससे कम नहों।

उसका अन्तिम आयाम नौ हाथका बताया गया है । इस प्रकार एक हाथसे लेकर नौ हाथतकके लिङ्ग यकाय जायें तो ठक्छौ संख्या नौ

होती है। इनका प्रस्तार यो समझना चाहिये।

एक हाथसे तीन हाथतकके शिवलिङ्ग ' कनिष्ठ ' कहे गये हैं। चारसे छः हाथतकके 'मध्यम' माने गये हैं और सातसे नौतकके

*उत्तम' या ' ज्येष्ठ ' कहे गये हैं। इन तीनोंके प्रमाणमें पादवृद्धि करनेसे कुल ३३ शिवलिङ्ग होते हैं। यधा--

एक हाथ', सवा हाथ', डेढ़ हाथ, पौन दो हाथ', दो हाथ, सवा दो हाथ, ढाई हाथ", पौने तोन हाथ, तीन्‌ हाथ', सवा तीव

हाथ", साढ़े तीन हाथ", पौने चार हाथ", चार हाथ'', सवा चार हाथ, स्राद़े चार हाथ", पौने पाँच हाथ", पाँच हाथ", सवा पाँच

हा, सादे पाँच हाथ", पौने छः हाथ”, छः हाथ", सवा छः हाथ", साढ़े छः हाथ, पौने सात हाथ", सात हाथ", सवा सात हाथ,

स्माद सात हाथ", पौने आठ हाथ, आठ हाथ", सवा आठ हाथ”, साढ़े आठ हाच", पौने नौ हाथ", नौ हाथ"।

इन तैंतीसोंके नाम विश्वकर्माने क्रमश: इस प्रकार बताये हैं-१. भव, २, भवोद्धव, ३. भाव, ४. संसारंभयनाशन, ५. पाशयुक्त,

६. महातेज, ७. महादेव, ८. परात्पर, ९. ईश्वर, १०. शेखर, ११. शिव, १२. शान्त, १३. मनोह्ादक, १४. रद्गरतेज, १५. सदात्मक (सच्चौजात),

१६. वामदेव, १७. अछोर, १८. तत्पुरुष, १९. ईशान्‌, २०. मृत्युंजय, २१. विजय्‌, २२. किरणाक्ष, २३. अधोगस्व, २४. श्रीकण्ठ, २५. पुष्यवर्धन,

२६. पुण्डरीक, २७. सुखकर, २८. उमातेज:, २९. विश्वेश्वर, ३०. त्रिनेत्र, ३१. ज्यम्बक, ३२. घोर, ३३. महाकाल।

पू्कोक्त क्रमसे .चादार्धवृद्धि करनैपर ६५ तक संख्या पहुँचेगी।

च दो अङ्गुल वृद्धि करेपर ९७ तक

^ एक अङ्गुल वृद्धि करनेपर १९३ तक

” अद्ङ्गुल वृद्धि कजेपर ३८५ तक

५ ^ अङ्गुला चतुधार बढ़ानेपर ७६९ तक

^ ^ एक-एक मके माकौ वृद्धि करनेपर १४४२ तक

मुद्ग-प्रमान लिङ्गि प्रत्येकके दस भेद करनेपर १४४२० तक

← पिछला
अगला →