अध्याय २२]
कृत्वा सीरं स सौवर्णं गृह्य रुद्रवृष॑ प्रभु:।
पौण्डूकं याम्यमहिषं स्वयं कर्षितुमुद्यातः ॥ २३
तं कर्षन्तं नरवरं समभ्येत्य शतक्रतुः ।
प्रोवाच राजन् किमिदं भवान् कर्तुमिहोद्यतः ॥ २४
राजाब्रवीत् सुरवरं तपः सत्यं क्षमां दयाम्।
कृषामि शौचं दानं च योगं च ब्रह्मचारिताम्॥ २५
तस्योवाच हरिर्देवः कस्माद्रीजो नरेश्वर।
लब्धोऽष्टाङ्खेति सहसा अवहस्य गतस्ततः ॥ २६
गतेऽपि शक्रे राजर्षिरहन्यहनि सीरधृक् ।
कृषतेऽन्यान् समन्ताच्च सप्तक्रोशान् महीपतिः ॥ २७
ततोऽहमन्रुवं गत्वा कुरो किमिदमित्यथ।
तदाऽ्टाङ्गं महाधर्मं समाख्यातं नृपेण हि॥ २८
ततो मयाऽस्य गदितं नृप बीजं क्र तिष्ठति।
स चाह मम देहस्थं बीजं तमहमन्ुवम्।
देहं वापयिष्यामि सीरं कृषतु वै भवान्॥ २९
ततो नृपतिना बाहुर्दक्षिण: प्रसृतः कृतः।
प्रसृतं तं भुजं दृष्टा मया चक्रेण वेगतः ॥ ३०
सहस्त्रधा ततश्छिद्य दत्तो युष्माकमेव हि।
ततः सव्यो भुजो राज्ञा दत्तश्छिलोउप्यसौ मया ॥ ३१
तथैवोरुयुगं प्रादान्मया छिन्नौ च तावुभौ ।
ततः स मे शिरः प्रादात् तेन प्रीतोऽस्मि तस्य च।
वरदोऽस्मीत्यथेत्युक्ते कुरुर्वरमयाचत॥ ३२
कुरुत्वाथ
यावदेतन्मया कृष्ट धर्मक्षेत्रं तदस्तु च।
स्नातानां च मृतानां च महापुण्यफलं त्विह॥ ३३
उपवासं च दानं च स्नानं जप्यं च माधव।
होमयज्ञादिकं चान्यच्छुभं वाप्यशुभं विभो ॥। ३४
त्वतप्रसादाद्धषीकेश शङ्खचक्रगदाधर ।
अक्षयं प्रवरे श्षेत्रे भवत्वत्र पहाफलम्॥ २५
तथा भवान् सुरैः सार्थं समं देवेन शूलिना ।
बस त्वं पुण्डरीकाक्ष मन्नामव्यञ्जकेऽच्युत।
इत्येवमुक्तस्तेनाहं राज्ञा बाढमुवाच तम्॥ ३६
* कुरुकी कथा, कुरुक्षेत्रका नि्मांण-प्रसङ्गं ओर पृथूदक तोर्थका माहात्म्य *
१०९
राजान सुवर्णमय हल बनवाकर उसमें शङ्करके बैल
एवं यमराजके पौण्ड्क नामक भैंसेकों नाँधकर स्वयं
जोतनेके लिये तैयार हुए । इसपर इन्द्रने उनके पास
जाकर कहा - राजन्! आप यहाँ यह क्या करनेके लिये
उच्यत हुए हैं? राजा बोले --मैं यहाँ तप, सत्य, क्षमा,
दया, शौच, दान, योग और ब्रह्मचर्य --इन अष्टाड्रोंकी
खेती कर रहा हूं ॥ २२-२५॥
इसपर इन्द्र उनसे बोले- ने श्वर! आपने (कृषिके
लिये साधनभूत) हल और बीज कहाँसे प्राप्त किये है?
यह कहते हुए उपहास कर इन्द्र वहाँसे शीघ्र ही चले
गये। इन्द्रके चले जानेपर भी राजा प्रतिदिन हल लेकर
चारों ओर सात कोसोंतक पृथ्वी जोतते रहे। तब मैंने
(विष्णुने) उनसे जाकर कहा--कुरु! तुम यह क्या कर
रहे हो ? (इसपर) राजाने कहा--मैं (पूर्वोक्त) अष्टाङ्ग
महाधर्मोंकी खेती कर रहा हूँ। फिर मैंने उनसे पूछा--
राजन्! बीज कहाँ है? राजाने कहा--बीज मेरे शरीरमें
है। मैंने उनसे कहा-उसे मुझे दे दो। मैं (उसे)
बोऊँगा, तुम हल चलाओ। तब राजाने अपना दाहिना
हाथ फैला दिया। फैलाये हुए हाथको देखकर मैंने
चक्रसे शीघ्र ही उसके हजारों टुकड़े कर डाले और उन
डुकड़ोंको तुम देवताओंको दे दिया। उसके बाद राजाने
वाम बाहु दिया और उसे भी मैंने काट दिया। इसी
प्रकार उसने दोनों ऊरुओंको दिया। उन दोनोंको भी मैंने
काट दिया। तब उसने अपना मस्तक दिया, जिससे मैं
उसके ऊपर प्रसन हो गया और कहा--तुम्हें मैं वर दूँगा।
मेरे ऐसा कहनेपर कुरुने (मुझसे) वर माँगा--॥ २६--३२॥
कुरुने कहा-- जितने स्थानको मैंने जोता है,
वह धर्मक्षेत्र हो जाय और यहाँ खान करनेवालों एवं
मरनेवालॉकों महापुण्यकौ प्राप्ति हो। माधव! विभो!
शह्बुचक्रगदाधारी हषीकेश! यहाँ किये गये उपवास,
खान, दान, जप, हवन, यज्ञ आदि तथा अन्य जुभ या
अशुभ कर्म भी इस श्रेष्ठ क्षेत्रमें आपकी कृपासे अक्षय
एवं महान् फल देनेवाले हों तथा हे पुण्डरीकाक्ष! हे
अच्युत! मेरे नामके व्यञ्जक (प्रकाशक) इस कुरुक्षेत्रमें
आप सभी देवताओं एवं शिवजीके साथ निवास
करें। राजाके ऐसा कहनेपर मैंने उनसे कहा - बहुत