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स त्वेवं नृपतिश्रेष्ठो याधातथ्यमवेक्ष्य च।

विचचार महीं सर्वां कीर्त्यर्थं तु नराधिपः॥ ११

तत्तो दैतवनं नाम पुण्यं लोकेश्वरो बली।

तदासाद्य सुसंतुष्टो विवेशाभ्वन्तरं ततः॥ १२

तत्र देवीं ददर्शाथ पुण्यां पापविमोचनीम्‌।

प्लक्षजां ब्रह्मणः पुत्रीं हरिजिल्लां सरस्वतीम्‌ ॥ १३

सुदर्शनस्य जननीं हृदं कृत्वा सुविस्तरम्‌।

स्थितां भगवतीं कूले तीर्थकोटिभिराप्लुताम्‌॥ १४

तस्यास्तग्जलपीक्ष्यैव स्नात्वा प्रीतोऽभवनृपः।

समाजगाम च पुनर्ब्रह्मणो वेदिमुत्तराम्‌॥ १५

समन्तपञ्चकं नाम धर्मस्थानमनुत्तमम्‌।

आसमन्ताद्‌ योजनानि पञ्च पञ्च च सर्वतः ॥ १६

देवा ऊचुः

कियन्त्यो वेदयः सन्ति ब्रह्मणः पुरुषोत्तम।

येनोत्तरतया वेदिर्गदिता सर्वपञ्चका!॥ १७

देवदेव उवाच

वेदयो लोकनाथस्य पञ्च धर्पस्य सेतवः।

चासु चष्ट सुरेशेन लोकनाथेन शम्भुना ॥ १८

प्रयागो मध्यमा वेदिः पूवां वेदिर्गयाशिरः।

विरजा दक्षिणा वेदिरनन्तफलदायिनी ॥ १९

प्रतीची पुष्करा वेदिस्त्रिभि: कुण्डैरलंकृता।

समन्तपञ्का चोक्ता बेदिरेवोत्तराउव्यया॥ २०

तपमन्यत॒ राजर्पिरिद क्षेत्र महाफलम्‌।

करिष्यामि कृषिष्यामि सर्वान्‌ कामान्‌ यथेप्सितान्‌॥ २९

इति संचिन्त्य मनसा त्यक्त्वा स्यन्दनमुत्तमम्‌।

चक्रे कीरत्यर्थमतुल॑ संस्थानं पार्थिवर्षभः ॥ २२

* श्रीवामनपुराण *

[ अध्याय २२

इस प्रकार यथार्थताका विचार कर वे राजा यश-प्राप्तिके

लिये समस्त पृथ्वीपर विचरण करने लगे। उसी सिलसिलेमें

वे बलशाली राजा पवित्र द्ैतवन पहुँचे एवं पूर्ण सुसंतुष्ट

होकर उसके भीतर प्रविष्ट हो गये॥९--१२॥

[प्रविष्ट होनेके बाद राजाने] बहाँपर पापनाशिनी

उस पवित्र सरस्वती नदीको देखा, जो पर्करि (पाकड़)

वृक्षसे उत्पन्न ब्रह्माकों पुत्री है। बह हरिजिह्वा,

ब्रह्मपुत्री और सुदर्शन-जननी नामसे भी प्रसिद्ध है। वह

सुविस्तृत हद (बड़ा ताल या झील)-में स्थित है। उसके

तटपर करोड़ों तीर्थ हैं। उसके जलको देखते ही

राजाको उसमें स्नान करनेकी इच्छा हुई । उन्होंने स्नान

किया और बड़े प्रसन्‍न हुए। फिर वे उत्तर दिशामें स्थित

ब्रह्माकौ समन्तपञ्चक वेदीपर गये। वह समन्तपञ्चक

नामक धर्मस्थान चारों ओर पाँच-पाँच योजनतक फैला

हुआ है॥ १३--१६॥

देवताओंने पूछा-- पुरुषोत्तम! ब्रह्माकी कितनौ

वेदियाँ हैं ? क्योंकि आपने इस सर्वपञ्चक वेदीको उत्तर

बेदी (अन्य दिशा-सापेक्ष शब्द “उत्तर'से विशिष्ट) कहा

है॥ १७॥

[भगवान्‌ विष्णु बोले ]-- लोकोके स्वामी

ब्रह्माकी पाँच वेदियाँ धर्म-सेतुके सदृश हैं, जिनपर

देवाधिदेव विश्वेश्वर श्रीशम्भुने यज्ञ किया था। प्रयाग

मध्यवेदी है, गया पूर्ववेदी और अनन्त फलदायिनी

जगननाथपुरौ दक्षिणवेदी है। (इसी प्रकार) तीन कुण्डॉसे

अलंकृत पुष्करक्षेत्र पश्चिम बेदी है और अव्यय

समन्तपड्क उत्तर वेदी है। राजर्षिं कुरुने सोचा कि

इस (समत्तपक्रक) दत्रको महाफलदायौ करूँगा

(यनाऊँगा) और यहीं समस्त मनोरथों (कामनाओं)-

की खेती करूँगा॥ १८--२१॥

अपने मनमें इस प्रकार विचारकर वे राजाओंमें

शिरोमणि कुरु रथसे उतर पड़े एवं उन्होंने अपनी

कीर्तिक लिये अनुपम स्थानका निर्माण किया। उन

१-समन्तपश्षक और सर्वपञ्चक समातारथी शब्द हैं; क्योंकि 'सम' और सर्व दोनों सर्ववाच्ी शब्द हैं, अत: दोनों शब्दको अर्थ एक ही

है। इसमें पाठभेदसे भ्रम नही होगा चाहिये।

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