११.२ यजुवेंद संहिता
४३७. देव सवितः प्र सुव यज्ञ प्र सुव यज्ञपतिं भगाय । दिव्यो गन्धर्वः केतपू: केतं नः पुनातु
वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु ॥७॥
हे सवितादेव ! यज्ञीय कर्मों की प्रेरणा आप सभी को दें । यज्ञ कर्म सम्पादित करने वालों को ऐश्वर्य-सम्पदा
से युक्त करके सत्कर्म की ओर प्रेरित करें । (है सवितादेव ! आप) दिव्यज्ञान के संरक्षक, वाणी के अधिपति हमारे
ज्ञान में पवित्रता का संचार करें और हमारी वाणी में मधुरता का समावेश करें ॥७ ॥
४३८. इमं नो देव सवितर्यज्ञं प्रणय देवाव्य सख्रिविद र सत्राजितं धनजित ९»
स्वर्जितम् । ऋचा स्तोम समर्धय गायत्रेण रथन्तरं वृहद्रायत्रवर्तनि स्वाहा ॥८ ॥
हे दिव्यगुण सम्पन्न सवितादेव ! आप देवों के पोषक, मैत्री भाव के विस्तारक, यज्ञीय ऊर्जा के सुनियोजक
और सुख एवं समृद्धि प्रदान करने वाले हैं, (आप) हमारे इस यज्ञ को सफल बनाएँ । वज्ञ को ऋग्वेद की ऋचाओं
से पोषित करें । गायत्र साम से रथन्तर साम को और उसी से वृहत् साम को भी परिपुष्ट करें । श्रेष्ठ भावना से
युक्त हमारी इस आहुति को स्वीकार करें ॥८ ॥
४३९. देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्चिनोर्बाहुभ्यां पृष्णो हस्ताभ्याम्। आददे गायत्रेण
छन्दसाद्धिरस्वत्पृथिव्याः सथस्थादर्ग्नि पुरीष्यमद्धिरस्वदाभर बरष्टुभेन छन्दसाद्विरस्वत् ॥
सबके सृजता सवितादेव की प्रेरणा से युक्त हम गायत्री छन्द के प्रभाव से अश्चिनीकुमारो के दोनों बाहुओं
से तथा पूषादेव के हाथों से (हे अभ्रे !) आपको अंगिरा के समान ग्रहण करते ह ¦ आप अंगिरा के समान त्रिष्ट॒प्
छन्द कौ प्रेरणा से पृथिवी को पोषणयुक्त ऊर्जा से परिपूर्ण करें ॥९ ॥
४४०. अभ्रिरसि नार्यसि त्वया वयमग्नि ** शकेम खनितु सथस्थ5 आ। जागतेन
छन्दसाङ्गिरस्वत् ॥१० ॥
(हे अभ्रे !) आप अभि (पिद्री खोदने का साधन) है, नारीरूप (शत्रुरहिता या खोदने से भोंथरी न होने बाली)
ह । अतः आपके द्वारा हम जगती छन्द के प्रभावे से पृथिवी पर विद्यमान (यज्ञ वेदिका में स्थित) अग्नि (ऊर्जा
विज्ञान) को अंगिरा के समान भली प्रकार प्रखर करने (धारण करने) में सक्षम हों ॥१० ॥
४४१. हस्तऽआधाय सविता विश्रदभ्रि हिरण्ययीम्। अस्नेज्योतिर्निचाय्य पृथिव्या5
अध्याभरदानुष्टभेन छन्दसाङ्गिरस्वत् ॥११॥
सर्वं उत्पादक सवितादेव (प्रजापति) अपने हाथ मे स्वर्ण-निर्मित अभ्रि को धारण करके अंगिरा के समान
अग्नि को भूमि (यज्ञ वेदी) के ऊपर प्रतिष्ठित (प्रज्वलित) करें और (यजमान) अनुष्टुप्-छद से भलो प्रकार उसे
पोषित करें अर्थात् प्रदीप्त करे ॥११॥
४४२. प्रत्तं वाजित्ना द्रव वरिष्ठामनु संवतम् । दिवि ते जन्म परममन्तरिक्षे तव नाभिः
पृथिव्यामधि योनिरित् ॥९२॥ ।
है अति तीव्र गमनशील अग्नि-ऊर्जा (अश्व) ! आपका चुलोक (दिव्यलोक) में प्रादुर्भाव हुआ है, अन्तरिक्ष
में आपका नाभिस्यल (मध्य भाग) है तथा पृथ्वीलोकं आपका (व्याप्त होने का) आच्रयस्यल है । आप पृथ्वी पर
शीघ्र ही अपने उपयुक्त स्थान पर स्थापित हों ॥१२ ॥
४४३. युञ्जाथा रासभं युवमस्मिन् यापे वृषण्वसू । अग्नि भरन्तमस्मयुम् ॥१३ ॥
हे याजक और अध्वर्यु (वजमान दम्पती) !आप दोनों (धन को वृद्धि करने वाले) हमारे लिए लाभकारी अग्नि
को प्रदीप्त करने में समर्थ हैं आप इस रासभ को-शन्द एवं दीप्तियुक्त अग्नि को- यज्ञकर्म में नियोजित करें ॥१३