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११ श्रीविष्णुपुराण ( अ* १९

तस्माच्च सूक्ष्मादेविशेषणाना- उससे भी परे जो सूक्ष्म आदि विशेषणोंका अविषय

` भगोचरे. यत्परमात्मरूपम्‌ । आपका कोई जचिन्त्य परमात्मस्वरूप है उन पुरुषोत्तमरूप

किमप्यचिन्त्यं तव रूपमस्ति

` क्तम नमस्ते पुरुषोत्तमाय । ७५

सर्वभूतेषु स्वत्मन्या शक्तिरपरा तव ।

गुणाश्रया नमस्तस्यै शाश्वतायै सुरेश्वर ॥ ७६

यातीतगोचरा वाचां मनसां चाविशेषणा ।

ज्ञानिज्ञानपरिच्छेद्या ता वन्दे स्वेश्वरीं पराम्‌ ॥ ७७

ॐ नमो वासुदेवाय तस्मै भगवते सदा ।

व्यतिरिक्तं न यस्यास्ति व्यतिरिक्तोऽखिलस्य यः ॥ ७८

नमस्तस्मै नमस्तस्मै नमस्तस्मै महात्मने ।

नाम रूप न यस्यैको योउस्तित्वेनोपलभ्यते ॥ ७९

यस्यावताररूपाणि समर्चन्ति दिवौकसः ।

अपश्यन्तः पर रूपं नमस्तस्मै महात्मने ॥ ८०

योऽन्तस्तष्ठत्ररोषस्य पश्यतीशः शुभाशुभम्‌ ।

ते सर्वसाक्षिणं विश्वं नमस्ये परेश्वरम्‌ ॥ ८१

नमोऽस्तु विष्णवे तस्मै यस्याभिन्नमिदं जगत्‌ ।

ध्येयः स जगतामाद्यः स प्रसीदतु मेऽव्ययः ॥ ८२

अत्रोतमेतलओतं विश्वमक्षरमव्ययम्‌

आधारभूतः सर्वस्य स प्रसीदतु मे हरिः ॥ ८३

~~~ कु या: : पुनः ।

यत्र सर्वं यतः सर्व यः सर्वं सर्वसंश्रयः ॥ ८४

एवाहमवस्थितः ।

मत्तः सर्वपहं सर्वं पयि सर्वं सनातने ॥ ८५

अहमेवाक्षयो नित्यः परमात्मात्मसंश्रयः ।

ब्रह्मसंजञोऽहमेवाये तथान्ते च परः पुमान्‌ ॥ ८६

आपको नमस्कार है ॥ ७५ ॥ हे सर्वात्मन्‌ ! समस्त भूतोंमें

आपकी जो गुणाश्रया पगदक्ति है, हे सुरेश्वर ! उस

नित्यस्वरूपिणीको नमस्कार है ॥ ७६ ॥ जो वाणी और

मनके परे है, विदोषणरहित तथा ज्ञानिर्योकि ज्ञानसे

परिच्छेद्य है उस स्वतन्त्रा पराहक्तिकी मै चन्दना करता

ह ॥ ७७ ॥ ॐ उन भगवान्‌ वासुदेक्कों सदा नमस्कार है,

जिनसे अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है तथा जो स्वय

सबसे अतिरिक्त (असम) हैं॥ ७८ ॥ जिनका कोई भी

नाम अथवा रूप नहीं है और जो अपनी सत्तामात्रसे ही

उपलब्ध होते है उन महात्माको नमस्कार है, नमस्कार है,

नमस्कार है | ७९ ॥ जिनके पर-स्वरूपको न जानते हुए

ही देवतागण उनके अवतार-कारीरोका सम्यक्‌ अर्चने

करते हैं उन महात्माकों नमस्कार है ॥ ८० ॥ जो ईश्वर

सबके अन्तःकरणोंमें स्थित होकर उनके शुभाशुभ कर्मोको

देखते हैं उन सर्वसाक्षी विश्ररूप परमेश्वरको मैं नमस्कार

करता हूँ॥ ८१॥

जिनसे यह जगत्‌ सर्वथा अभिन्न है उन श्रीविष्णु-

भगवान्‌कों नमस्कार है वे जगतके आदिकारण और

प्ोगियोंके ध्येय अव्यय हरि मुझपर प्रसन्न हों ॥ ८२ ॥

जिनमें यह सम्पूर्ण विश्व ओतप्रोत है वे अक्षर, अव्यय

और सबके आधारभूत हरि मुझपर प्रसन्न हों ॥ ८३ ॥ ॐ

जिनमे सब कुछ स्थित है, जिनसे सन उत्पन्न हुआ है और

जो स्वयं सब कुछ तथा सबके आधार हैं, उन श्रीविष्णु-

भगवानुत नमस्कार है, उन्हें बारम्बार नमस्कार है ।। ८४ ॥

भगवान्‌ अनन्त सर्वगामी हैं; अतः वे ही मेरे रूपसे स्थित

है, इसलिये यह सम्पूर्णं जगत्‌ मुझहीसे हुआ है, मै दी यह

सब कुछ हुँ और मुझ सनातनमें ही यह सव्र स्थित है

॥८५॥ मैं ही अक्षय, नित्य और आत्माधार परमात्मा

हूँ; तथा मैं हो जगत्के आदि और सन्तम स्थित

क्रह्मसंज्षक परमपुरुष हूं । ८६ ॥

=-= + ~

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथपेऽरो एकोनविदातिदमोऽध्यायः ॥ १९ ॥

क हः =

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