पैंतालीसवाँ अध्याय
पिण्डिका आदिके लक्षण
भगवान् हयग्रीव कहते हैं-- ब्रह्मन्! अब मैं | होनी चाहिये। वह ऊँचा और टेढ़ा-मेढ़ा न हो।
पिण्डिकाका लक्षण बता रहा हूँ। पिण्डिका लंबाईमें
प्रतिमाके समान ही होती है, परंतु उसकी ऊँचाई
प्रतिमासे आधी होती है। पिण्डिकाको चौसठ कुटों
(पदों या कोष्ठकों)-से युक्त करके नीचेकी दो
पङ्क छोड़ दे और उसके ऊपरका जो कोष्ठ है, उसे
चारों ओर दोनों पाश्वोमें भीतरकी ओरसे मिटा दे।
इसी तरह ऊपरकी दो पड्ड्क्तियोंको त्यागककर उसके
नीचेका जो एक कोष्ठ (या एक पङ्क) है, उसे
भीतरकी ओरसे यल्नपूर्वक मिटा दे। दोनों
पार्धोमिं समान रूपसे यह क्रिया करे ॥ १--३॥
दोनों पाश्वोकि मध्यगतं जो दो चौक हैं, उनका
भी मार्जन कर दे। तदनन्तर उसे चार भागोंमें
बाँटकर विद्वान् पुरुष ऊपरकी दो पङ्किरयोको
मेखला माने। मेखलाभागकी जो मात्रा है, उसके
आधे मानके अनुसार उसमें खात खुदावे। फिर
दोनों पार्श्रभागोंमें समानरूपसे एक-एक भागको
त्यागकर बाहरकी ओरका एक पद नाली बनानेके
लिये दे दे। विद्वान् पुरुष उसमें नाली बनवाये।
फिर तीन भागमें जो एक भाग है, उसके आगे
जल निकलनेका मार्ग रहे ॥४--६॥
नाना प्रकारके भेदसे यह शुभ पिण्डिका
"भद्रा" कही गयी है। लक्ष्मी देवीकी प्रतिमा ताल
(हथेली )-के मापसे आठ तालकी बनायी जानी
चाहिये। अन्य देवियोंकी प्रतिमा भी ऐसी ही हो।
दोनों भौहोंको नासिकाकी अपेक्षा एक-एक जौ
अधिक बनावे और नासिकाकों उनकी अपेक्षा
आँखें बड़ी-बड़ी बनानी चाहिये। उनका माप
सवा तीन जौके बराबर हो। नेत्रोंकी चौड़ाई
उनकी लंबाईकी अपेक्षा आधी करे। मुखके एक
कोनेसे लेकर दूसरे कोनेतककी जितनी लंबाई है,
उसके बराबरके सूतसे नापकर कर्णपाश (कानका
पूरा घेरा) बनावे । उसकी लंबाई उक्त सूतसे कुछ
अधिक ही रखे। दोनों कंधोंको कुछ झुका हुआ
और एक कलासे रहित बनावे। ग्रीवाकी लंबाई डेढ़
कला रखनी चाहिये। वह उतनी ही चौड़ाईसे भी
सुशोभित हो। दोनों ऊरुओंका विस्तार ग्रीवाकी
अपेक्षा एक नेत्र' कम होगा। जानु (घुटने),
पिण्डली, पैर, पीठ, नितम्ब तथा कटिभाग-इन
सबकी यथायोग्य कल्पना करे॥ ७--११३॥
हाथकी अँगुलियाँ बड़ी हों। वे परस्पर
अवरुद्ध न हों। बड़ी अँगुलीकी अपेक्षा छोटी
अँगुलियाँ सातवें अंशसे रहित हों। जंघा, ऊरु
और कटि--इनकी लंबाई क्रमशः एक-एक नेत्र
कम हो। शरीरके मध्यभागके आस-पासका अङ्ग
गोल हो। दोनों कुच घने (परस्पर सटे हुए) और
पीन (उभड़े हुए) हों। स्तनोंका माप हथेलीके
बराबर हों। कटि उनकी अपेक्षा डेढ़ कला
अधिक बड़ी हो। शेष चि पूर्ववत् रहें। लक्ष्मीजीके
दाहिने हाथमे कमल और बायें हाथमे विल्वफल
हो। उनके पार्श्थागमें हाथमे चंवर लिये दो
सुन्दरी स्त्रियाँ खडी हो * । सामने बड़ी नाकवाले
गरुडकी स्थापना करे। अब मैं चक्राड्डित (शालग्राम)
एक जौ कम। मुखकी गोलाई नेत्रगोलकसे बड़ी | मूर्ति आदिका वर्णन करता हूँ ॥ १२--१५॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें "पिण्डिका आदिके लक्षणका वर्णन” नामक
पत्ालीसवां अध्याय पूरा हआ॥ ४५ ॥
(क
१, नेत्रकी जो लवा ओर चौडा है, उतने मापकों ' एक नेत्र" कहते है ।
२. मत्स्यपुराणे दाहिने हाधे श्नोफल और बाये हाथमे कमलका उल्लेख है ~
"पद हस्ते प्रदातव्यं श्रीफलं दक्षिणे करै।'
(२६६।४३)
३. मत्स्यपुराणमें अनेक चामरधारिणौ स्जियोंका वर्णन है--' पाश्वे तस्याः स्ियः कार्याश्वामरध्यप्रषाणय:।' (२६१ । ४५)