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= अंक्षिप्त मार्कण्डेयपुराण ^

लेपभागका अन्न पानेक। भी आभिकरार्‌ नहीं रहता । |

वे सम्बन्धहोंन जनका उपभोग करते हैं। पिता.

पितामह और प्रपितापह--इन जीन पृरूपौको पिष्टके

अधिकारी समझना याहिये। इनसे अर्धात्‌ पिताके

पितामहसे ऊपर जो तीन पीढ़ीके पुरुष हैं, वे

लेपपधागके अधिकारी हैं। इस प्रकार छः ये और

सान जान, सब मिलाकर पातत पुरुषोंका

चनिष्ठ सम्बन्ध होता हैं--ऐसा सुत्रियोंका कथन

है। यह सम्बन्ध यजागानसे लेकर ऊपसके

लेपभागभोजी पिलरोंतक माना जाता है। इनसे

ऊपरके सभी पितर पूर्वज कहलाते हैं। एनगेंसे जो

तरक निवास करते हैं, जो पशु-पक्षोक्तों योनिमें

पड़े हैं तथा जो भूत-प्रेत आदिके रूपे स्थित हैं,

उने सबको विधिपूर्वं श्राद्ध करनेवाला यजमान

चृ करता है। किस प्रकार वृ कस्ता है, वह

बतलाती हूँ; सुनो। मनुष्य पृथ्लोपर जो अन्न

बिखेरते हैं, उससे पिशाच-बोनिपें पड़े हुए पिंसरोंकी

तृत्ति होती हैं। बेटा! स्तानके वम्र जो जल

पृथ्तीपर टपकता है, उससे दृक्ष-योगिसें पड़े हुए

पितर तृप्त होते हैं। नहानेपर अपने शरौरसे जो

जलके कण इस पृथ्वीपर गिरते हैं, उनसे उन

पितरोंकी तृषि रोती है, जो टेवभावको परा हु |

हैं। पिण्डोंक्रे ठठानेगर जो ॐन्नके रूण पृथ्वोपर

गिरौ हैं, उनसे ग्शु-पक्षीक्ती बोनिमें पड़े हुए

पिक्तरोंकी तृति होती है। कुलमें जो ब्शलक्त

श्राद्धकाकि योग्य होकर भी संस्कारसे तञ्चित रह

गये हैं शाभ्रत्रा जलकर मेरे हैं, ते तरिष्ये हुए अन्न

और सम्मार्जनके जलको ग्रहण करते हैं ¦ ऋद्यणलोग

भोजन कर्के जब हाथ मुँह घोते हैं औश चरणोंका

प्रक्षालन करते हैं, उस जलसे भी अन्यान्य

पितरोंकी ठृष्ति होती है। येटा! उत्तम विभिसे श्राद्ध

करनेवाले गुरुषोंके अभ्य पितर यदि दूसरो-दूसरी

योनिर्योभ चले गये हों तो भी उस श्राद्धसे उन्हें

बड़ी तृप्ति होती है। अन्यायोपाजिंत धनसे जो

श्राद्ध किया जाता है, उससे चाण्डाल आदि

योनियॉँमें पड़े हुए पितर तृप्त होते हैं । वत्स ! इस

प्रकार यहाँ श्राद्ध करतेत्रालें भाई अन्धु अन्न ओर

जनके कणसाजत्रसे अनेक पितरोंकों तृप्त करते ईै।

इसलिये मनुप्यको उचित है कि चहं पित्तरोंक्र प्रति

क्ति रखते हुए शाकमात्रके द्वारा भौ ब्रिधिपूर्चक

श्राद्ध को। श्राद्ध करनेवाले पुरुप कुलमें कोई

दुःख नहों भोगता।

अन्न मैं नित्य नैमित्तिक श्राद्धेकि काल बतलातो

हूँ और मनुष्य जिस निधिसे श्राद्ध करते हैं,

उसका भी वर्णन करतो हूँ; सुनो । प्रत्येक मासकी

अमातस्याकों जिस दिन यन्द्रमाकौ सम्पूर्ण कलाएँ

क्षोण हो गयी हौ तथा अष्टका' तिथियोंकों अवश्य

श्राद्ध करता चाहिये। अन्न श्राद्धक्ता इच्छाप्राप्त काल

खुनो। किसी ब्रिशिष्ट ब्राक्मणके आनेपर, सूर्यग्रहण

और चन्दटणपे, अयन आस्म्भ होनेपर, विधुवयोशम्मे',

सूर्यको संक्रान्तिके दिन्‌. व्यत्तीपात योगमें, श्राद्के

योग्य सामश्रीको प्राप्ति होनेपर, दुःस्वप्न दिखायो

देनेपर, जन्य-नक्षत्रकरे दिन एवं ग्रहजनित पीड़ा

डोनेपर स्वैष्छासे श्राद्धका अनुष्ठान करें।

श्रेष्ठ ब्राह्मण, श्रोत्रिय, वोगौ, तैदज्ञ, ज्येष्ठ

सामग, भ्रिणानिकेत, त्रिमधुः, विसर्पी, पडड़वेता,

दौहिज, ऋत्विक्‌, जामाता. भावनया, पज्चाणिन-

कर्पयें तत्पर, तपस्वी, मामा, साता-पिताके भक्त,

६, पौष, माच. फात्गुन तथा चैत्र कृष्णपक्षको अष्टमिवेकि अश कहते हैं।

२, निना यप सूर्य विषुव रेश्शापर पहुँचते और दिन २६ शश्र होते हैं, उसे विपुव' कठते हैं।

४, (तीव चारके अन्तर्गत ' यं शार गः पतं ' इत्यदि तीत त्रिणाचिकेत नामने अनुवाफोंक़ों पदर श्रा उसका

अनुष्ठान फरनेताला

४, “मधु बात०' इत्यादि झचाकों $भ्यका और मधुव्रतः ५९१ करनेयाला।

५. "४ मे तम्‌ ` इत्यादि तीः अदुवाकोक्तः जध्यरून जीर क़लम्पत्थों वरत करतेवाला।

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