९२ ऋण्वेट संहिता भाग-१
७२६. त्वं ह त्यदिनद्रारिषण्यन्ृव्यहस्य चिन्मर्तानामजुष्टौ ।
व्यस्मदा काष्ठा अर्वते वर्घनेव वब्रिज्छनथिहामित्रान् ॥५ ॥
हे वज्रधारी इन्द्रदेव ! मनुष्यों पर क्रोध करने वाले सुदृढ़ शत्रु भी आप पर प्रहार नहीं कर पाते । हे इन्द्रदेव !
जैसे हथौड़े से लोहे को परते हैं, वैसे हो आप हमारे शत्रुओं पर आघात कर उन्हें मारे । हमारे अश्वों के मार्ग को
पुक्त करें अर्थात् हमारी प्रगति का मार्ग बाधाओं से रहित हो ॥५ ॥
७२७ त्वां ह त्यदिद्वार्णसातौ स्वर्मीबयूहे नर आजा हवन्ते ।
तव स्वधाव इयमा समर्य ऊतिवजिष्वतसाय्या भूत् ॥६ ॥
हे इन्द्रदेव !धन-प्राप्ति और सुख-प्राप्ति के निमित्त किये जाने वाले युद्ध में मनुष्य अपनी सहायता के
लिए आपका आवाहन करते है । हे बलों के धारक इच्धदेव (संग्राम में योद्धाओं को आपकी सामर्थ्य प्राप्त
होती है ॥ ६ ॥
७२८. त्वं ह त्यदिन्द्र सप्त युध्यन्पुरो वच्रिन्युरुकुत्साय दर्द: ।
बर्हिर्न यत्सुदासे वृथा वर्गहो राजन्वरिवः पूरवे कः ॥७ ॥
हे वच्रधारी इद्धदेव ! आपने 'पुरुकुत्स' के लिए युद्ध करते हुये शत्रु के सात नगरो को तोड़ा और सुदास के
लिए शत्रुओं को कश के समान अनायास काट दिया । आपने ही पुरु के लिए धन प्रदान किया ॥७ ॥
७२९. तव॑ त्यां न इन्द्र देव चित्रामिषमापो न पीपयः परिज्मन्।
वया शुर प्रत्यस्मभ्यं यंसि त्मनमूर्जं न विश्वध क्षरध्यै ॥८ ॥
हे महान् बलशालौ इन्रदेव ! जल को बढ़ाने के सदृश हमारी भूमि में चारों ओर अत्रो की वृद्धि करें । जलों
को सर्वत्र बहाने के समान हमें अन्नो को प्रदान करें ॥८ ॥
७३०. अकारि त इन्द्र गोतमेभिर्ब्रह्माण्योक्ता नमसा हरिभ्याम्।
सुपेशसं वाजमा भरा नः प्रातर्मक्षू धियावसुर्जगम्यात् ॥९ ॥
हे इन्धदेव ! गौतम वंशजो अश्वो से सम्पन्न आपके निषित् स्तुति मंत्रों को रचना की । इन श्रेष्ठ स्तोत्र
को गाकर आपका सत्कार किया । हे इन्द्रदेव ! आप हमे श्रेष्ठ बल दें और धनं को प्राप्त करने की बुद्धि दें । प्रात:
'यज्ञ कौ वेला पे) हमें आप शीघ प्राप्त हों ॥९ ॥
[सूक्त - ६४ |
[ऋषि - नोधा गौतम । देवता- मरुद्गण । छन्द - जगती, १५ बषट् ।]
७३१. वृष्णे शर्धाय सुमखाय वेधसे नोधः सुवृक्तिं प्र भरा मरुझ्धचः।
अपो न धीरो मनसा सुहस्त्यो गिरः समञ्जे विदथेष्वाभुवः ॥९ ॥
हे नोधा (शोधकर्ता) ऋषे ! बल पाने के लिए, बल वृद्धि के लिए, उत्तम यज्ञ - सम्पादन के निमित्त और मेधा
प्राप्ति के निमित्त मरुद् गणो को श्रेष्ठ काव्यो से स्तुतिर्या करें । यज्ञो मे हम होता हाथ जोड़कर हृदय से उनकी
अध्यर्थना करते हैं और जल सिंचन के सदृश उत्तम वाणियो से मंत्रों का गायन करते है ॥१ ॥