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काण्ड-१३ सूक्त-९ ५

३६२९. रोहितो दिवमारुहन्महतः पर्यर्णवात्‌ । सवां रुरोह रोहितो रुहः ॥२६ ॥

सूर्यदेव विशालसागर से चुलोक के ऊपर चढ़ते हैं ।ये ऊपर उठने वाली वस्तुओं पर आरोहण करते हैं ।

३६३०. वि मिमीष्व पयस्वतीं घृताचीं देवानां थेनुरनपस्पृगेषा ।

इन्द्रः सोमं पिबतु क्षेमो अस्त्वग्निः प्र स्तौतु वि मृधो नुदस्व ॥२७ ॥

उत्तम दूध और घृत देने वाली देवों की गौओं का पान (पालन) करें । देवों की गौएँ हलचल नहीं करतीं ।

इनद्रदेव सोमरस का पान करें, अग्निदेव कल्याण करें, (देवों की) स्तुति करें और शत्रुओं को खदेड दें ॥२७ ॥

३६३१. समिद्धो अग्नि: समिधानो घृतवृद्धों घृताहुतः ।

अभीषाद्‌ विश्वाषाइग्निः सपत्नान्‌ हन्तु ये मप ॥२८ ॥

प्रज्वलित हुए अग्निदेव घृताहुतियों से भली प्रकार प्रवृद्ध हुए है । वे सभी ओर से शत्रुओं को दूर करके

विजय प्राप्त करने वाले अग्निदेव हमारे सभी शत्रुओं को विनष्ट करें ॥२८ ॥

३६३२. हन्त्वेनान्‌ प्र दहत्वरिर्यो नः पृतन्यति।

क्रव्यादाग्निना वयं सपत्नान्‌ प्र दहामसि ॥२९॥

इन सभी वैरियों को अग्निदेव भस्म कर डालें । जो शत्रु सैन्यशक्ति के साथ हमारे संहार के आकांक्षी हैं,

क्रव्याद्‌ ( मांसभक्षक) अग्नि द्वारा हम उन शत्रुओं को भस्म करते हैं ॥२९ ॥

३६३३. अवाचीनानव जहीनदर वत्रेण बाहुमान्‌ ।

अधा सपत्नान्‌ मामकानम्नेस्तेजोभिरादिषि ॥३० ॥

हे बाहुबल सम्पन्न इनद्रदेव ! आप वज से हमारे शत्रुओं को नीचे झुकाकर (पराभूत करके) विनष्ट करें । हे

अग्निदेव ! आप अपनी तेजस्वी लपटो से हमारे शत्रुओं को भस्मी भूत करें ॥३० ॥

३६३४. अग्ने सपत्नानधरान्‌ पादयास्मद्‌ व्यथया सजातमुत्पिपानं बृहस्यते ।

इन्द्राग्नी मित्रावरुणावधरे पदयन्तापप्रतिमन्युयमानाः ॥३१ ॥

हे अग्निदेव । आप हमारे समश्च शत्रुओं को पददलित करें, ऊपर को उठने वाले समान जातीय शत्रु को

पीड़ित करें । हे इन्द्राग्नि मित्रावरुण देवो ! जो शत्रु हमारे प्रतिकूल होकर रोष करें, वे पददलित हों ॥३१ ॥

३६३५. उद्य॑स्त्वं देव सूर्य सपत्नानव मे जहि।

अवैनानश्मना जहि ते यन्त्वधमं तमः ॥३२ ॥

है सूर्यदेव ! उदित होते हुए आप हमारे शत्रुओं ( हमारे विकास में अवरोधक तत्वों ) का संहार करें । इन्हें

अपनी विनाशकारी शक्ति से विनष्ट करके, मृत्यु के घने अंधकार में फेंक दें ॥३२ ॥

३६३६. वत्सो विराजो वृषभो मतीनामा रुरोह शुक्रपृष्ठोऽन्तरिक्षम्‌।

घृतेनाक॑मभ्यर्चन्ति वत्सं द्रह्म सन्तं ब्रह्मणा वर्धयन्ति ॥३३ ॥

विराट्‌ वत्स (बाल सूर्य) सदबुद्धि के संवर्द्धक, सामर्थ्यशाली पृष्ठिभूषि वाले होकर अंतरिक्ष पर चढ़ते है ।

वे स्वयं ब्रह्म के स्वरूप है, साधक उने ब्रह्म ( मंत्रों-यज्ञों ) द्वारा समृद्ध करते है ॥ ३३ ॥

३६३७. दिवं च रोह पृथिवीं च रोह राष्ट च रोह द्रविणं च रोह ।

प्रजां च रोहामृतं च रोह रोहितेन तन्वं९ सं स्पृशस्व ॥३४॥

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