५.८ सामवेद-संहिता
तीन स्थानों (अन्तरिक्ष, वनस्पति एवं शरीर) में निवास करने वाले, काम्यवर्षक और अनदाता सोम की तीव
स्वर से ऋत्विज् की वाणियाँ स्तुति करती हैं। जल में विद्यमान वरुण की भाँति जल में मिलकर सोम स्तोताओं
को रल और धन प्रदान करता है ॥६ ॥
५२९. अक्रांत्समुद्र:ः प्रथमे विधर्म जनयन् प्रजा भुवनस्य गोपाः ।
वृषा पवित्रे अधि सानो अव्ये बृहत्सोमो वावृधे स्वानो अद्रिः ॥७॥
जलयुक्त, गोपालक, बलवर्द्धक, अभिषुत सोम सर्वप्रथम प्रजाजनों का उत्साह बढ़ाकर उनकी उनति करते
हुए सबसे महान् हो गया ॥७ ॥
५३०. कनिक्रन्ति हरिरा सृज्यमानः सीदन्वनस्य जठरे पुनानः ।
नृभिर्यतः कृणुते निर्णिजं गामतो मतिं जनयत स्वधाभिः ॥८ ॥
मनुष्यों द्वारा दबाऋर रस निकाला जाने वाला, हरिताभ सोम पवित्र होता है । काष्ठ के वर्तन (कलश) में
गोदुग्ध मिश्रित वह, शब्द करता हुआ गिरता है याजक इस सोम की हवियुक्त स्तुति करते हैं ॥८ ॥
५३१. एष स्य ते भधुमां इन्द्र सोमो वृषा वृष्णः परि पवित्रे अक्षाः ।
सहस्रदाः शतदा भूरिदावा शश्वत्तमं बर्हिरा वाज्यस्थात् ॥९ ॥
हे बलशाली इन्द्रदेव ! बलवर्द्धक, आपका यह सोम मधुर और वीर्यवान् होकर पात्र मे गिरता है । हजारों-
सैकड़ों प्रकार का प्रचुर धन प्रदान करने वाला, यह शक्तिसम्पन सोम, लगातार होने वाले यज्ञ में जाकर
स्थित होता है ॥९ ॥
५३२. पवस्व सोम मधुमां ऋतावापो वसानो अधि सानो अव्ये ।
अव द्रोणानि धृतवन्ति रोह मदिन्तमो मत्सर इन्द्रपानः ॥१० ॥
हे मधुर सोम ! आप जल में मिलकर, ऊँचे स्थान पर स्थित होकर, छलनी से छनकर पवित्र होते है । इसके
बाद हर्षदायक और इद्धदेव के पीने योग्य आप (सोम) जलयुक्त बर्तन में पहुँचकर स्थित रहते है ॥१० ॥
॥इति षष्टः खण्डः ॥
के के कै
॥सप्तम: खण्ड: ॥
५३३. प्र सेनानीः शूरो अग्ने रथानां गव्यन्नेति हर्षते अस्य सेना ।
भद्रान् कृण्वननिन्द्रहवांत्सखिभ्य आ सोमो वस्त्रा रभसानि दत्ते ॥१॥
सेना के नायक, शूरवीर सोम गाय (के दूध) की कामना करते हुए, -रथो के आगे चलता है, जिससे इसकी
सेना हर्षित होती है । यह सोम इन्द्रदेव की प्रार्थना को मित्रों और याजको के लिए मंगलमय बनाते हुए तेजस्विता
को धारण करता है ॥१ ॥
५३४. प्र ते धारा मधुमतीरसूग्रन्वारं यत्पूतो अत्येष्यव्यम् ।
पवमान पवसे धाम गोनां जनयंतसूर्यमपिन्वो अर्कैः ॥२ ॥
हे सोम ! पवित्र होते समय आपकी दुग्ध-मिश्रित मधुर धाराएँ, ऊन की छलनी से छनकर पात्र में स्थिर
गती हैं। उस समय पवित्रता को प्राप्त हुए आप सूर्यदेव जैसी तेजस्विता को धारण करते हैं ॥२ ॥