माहेश्वरखण्ड-कुमारिकाखण्ड ] # नारदजीके द्वारा कछाप-प्रामके ब्राह्मणको महीसङ्गमपर ले आना # ९३
“अहो ! पतिवता नारीका शध करके मैं पापके समुद्रे इव
गया हूँ । अब कौन मेरा उद्धार करेगा! मैने उदार विचार-
बारे चिरकारीको बड़ी झीघ्रतासे वह कठोर आश दे दी थी ।
यदि यह सचमुच चिरकारी हो तो मुझे पापसे बचा सकता
है। चिरकारिक ! तुम्दारा कल्याण दो । यदि आज भी अपने
नामके अनुसार तुम चिरकार्य बने र, तमी थास्तवर्में चिरकरर्व
हो। बेटा ! तुम आज मुझे अपनी माताकों तथा मेरे द्वारा
उपार्जित तपस्पाको बयाओ । चिस्कारक ! तुम पातक और
भयसे अपनी भी रक्षा करो ।” इस प्रकार अत्यन्त दुःखित
हो चिन्ता करते हुए गौतम भनि चिरकारीके पास आष |
बहो आक्र उन्होंने अपने पुत्र चिरकारीफों माताके पास
बैठे देखा । चिरकारी परताको अपने समीप आया देख बुत
दुली हुए. और दधिवार कैंककर फिताके चरणों मस्तक
रखकर वे उन्हें प्रसन्न करेनेक्री चेश करने च्छो । मेघातिथि
पुत्रकों प्ृथ्योपर मस्तक रखकर पढ़े देशव और पत्नी
जीवित पाकर बड़े प्रसन्न हुए। जब पुत्र हाथमें हथियार
छेकर खड़ा धा, तब भी माताने ऐसा नहीं समझा कि षद
मुझे मार डाछेगा | अग्र उसे पिताके चरणोंमें पड़ा देख माता
यह विचार करने लगी कि "लने हथियार उठानेकी जो
चपलता की है, उसीकों पिताके भवते छिपा रहा है ।?
तदनन्तर फिताने बढ़ी देरतक पुत्रकी ओर देखा । देरतक
उसका मस्तक रषा । चिरकाटतकं उसे दोनों मुख्र्ओमे
कसफर छातीसे लगाये रस्खा और अन््तमें कद्माः-*बेंटा !
दम चिरजीवी रदो । मेघातिथि बढ़ी देरतक प्रसक्तामें दबे
रहे । फिर पुव इस प्रकार श्रेले--“चिरकारिक ! दरार
कल्याण हो । तुम्हारी आयु चिरस्यायिनी हो । सोम्य ! तुमने
चिरकाल्तक विलम्ब करके जो कार्य किया है, उसके कारण
मुझे इस समय अधिक समयतक दुखी नहीं होना पढ़ा दे ।?
तदनन्तर प्रसिद्ध विद्वान् सुनिभेष्ठ गौतमने गाया गान
किषा) जो इस प्रकार ई--*चिरकाल्तक विचार करके कोई
मन्त्रणां स्थिर करे | स्थिर किये हुए. मन्त्र ( परामक्ं ) को
चिरकालके बाद छोड़े । चिरकाहमैं किसीको मित्र बनाकर
उमे चिरकास्थ्सक धारण किये रहना उचित दै । राग, दप,
अभिमान, दरोद्, पापकम तथा अध्रिय कर्तव्वमे चिरक्यरी
( बिम्ब करनेयाक्या ) प्रशंसाका पात्र दै। बन्धु, सुहव,
मृत्य और लीये अन्यक अपराधे जस्दी कोई दण्ड न
देकर देरतक बिचार करनेयात्म पुरुष प्रशंसनीय माना गया
है। बिरकाछ्तक धर्मोका सेवन करे । किसी यातकी खोजका
कार्य चिरकाल्तक करता रहे । विद्धान् पुरुषोंका संग अधिक
कालतक करे । रष्टमिर्बो सेवन अथया इशएदेवताकी
उपासना दीर्पकाल्तक करे। अपनेको चिरकाल्तक विनयशीले
बनाये रखनेवाल्य पुरुष दीर्भकाट्तक आदरका पात्र बना
रहता है । दूसरा कोई मी यदि धर्मयुक्त वचन कटे तो उसे
देरतक सुने और देर्तक उसके विषयमें प्रभ करता रहे ।
ऐसा करनेसे मनुप्य भिरकाटतक तिरस्कारका पात्र नहीं
बनता ।
कर यदि कोई धर्मञ्च कार्य आ गया हो तो उसके
प्रन्ने विलम्ब नहीं करना चाहिये। शत्रु हाथमे इृषियार
छेऋर आता हो तो उससे आत्मरक्षा कले देर नहीं छगानी
चाहिये। यदि कोई सुपाज व्यक्ति अपने समीप आ गया हो
तो उसका सम्मान करने या उसे कुछ देनेमेँ पिलम्द नहीं
करना याहिये । भयसे बचने और साधु पुरुषोंका स्वागत-
सत्कार करनेमें मी देर नहीं करनी चाहिये । उपयुक्त क्यो
जो विलम्ब करता दै। यह प्रशंंसाका पात्र नहीं दे ।!७
# चिरेण मन्त्रं संचीयाकिरिण च हर स्वजेत् ।
चिरेण विदितं मित्र चिरं भारणमइंति ॥
शते दषे च माने च द्रोहे षषे च कर्मणि ।
अभ्रिवे नैव कर्तष्ये चिरक्यरौ प्रशाष्यते ॥