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यथा सर्वेषु भूतेषु सर्वव्यापी जगदगुरु: ।

विष्णुरेव तथा सर्वे जीवन्त्वेते पुरोहिताः ॥ ४०

यथा सर्वगतं विष्णु मन्यमानोऽनपायिनम्‌ ।

चिन्तयाम्यरिपक्षेऽपि जीवन्त्वेते पुरोहिताः ॥ ४१

ये हन्तुमागता दत्तं यैर्विषं यैहताशन: ।

चैर्दिमाजैरह॑ क्षुण्णो दष्टः सर्वैश्च यैरपि ॥ ४२

तेदहं मित्रभावेन खम: पापोऽस्मि न क्रचित्‌ ।

यथा तेनाद्य सत्येन जीवन्त्वसुरयाजकाः ॥ ४३

श्रीविच्णुपुराण

[अर १९

दुःसह दुःखसे रक्षा करो ॥ ३९ ॥ "सर्वव्यापी जगदुरु

भगवान्‌ किष्णु सभी प्राणियोंमें व्याप्त है --इस सत्यके

प्रभावसे ये पुरोहितगण जीवित हो जायें ॥ ४० ॥ यदि

मैं सर्वव्यापी ओर अक्षय श्रीमिच्णुभगवानूको अपने

बिपक्षियोंमें भी देखता हूँ तो ये पुरोहितगण जीवित हो जायै

॥ ४१ ॥ जो लोग मुझे मारनेके सवयि आये, जिन्होंने मुझे

किष दिया, जिन्होंने आगमे जलाया, जिन्होंने दिग्गजोंसे

पीडित कराया और जिन्होंने सपोंसे ड साया उन सबके प्रति

यदि मैं समान मित्रभावसे रहा हूँ और मेरी कभी पाप -

बुद्धि नहीं हुई तो उस सत्यके प्रभावसे ये दैत्यपुरोहित

जी उट ॥ ४२-४३ ॥

भ्रीपराशरजी खोले--ऐसा कहकर उनके स्पर्धा

करते हो ये ब्राह्मण स्वस्थ होकर ठठ बैठे और उस

विनयावनत बालकसे कहने लगे ॥ डड ॥

पुरो्ितगण बोर्ठै--हे वत्स ! तू बड़ा श्रेष्ठ है। तू

दीर्षायु, निईन्द्र, बल-बीर्यसम्पन्न तथा पुत्र, पौत्र एवं

धन-ऐश्वर्यादिसे सम्पन्न हो ॥ ४५ ॥

औपराज्षर उवाच श्रीपराहारजी खोले--हे महामुने ! ऐसा कह

इत्युक्त्वा तै ततो गत्वा यथावृत्तं पुरोहिता:। | पुरोहितोने दैत्यराज हिरण्यकशिपुके पास जा उसे सारा

दैत्यराजाय सकरूमाचचर्यु्महामुने ॥ ४६ | समाचार ज्यों-का-त्यों सुना दिया ॥ ४६ ॥

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इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽदो अष्टादकोऽध्यायः ॥ १८ ॥

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उन्नीसवाँ अध्याय

त्रह्मादकृत भगवत्‌-गुण-वर्णन और भ्रह्लादकी रक्षाके ल्थि भगवानका

सुदर्शनचक्रको भेजना

औपरादार उवाच श्रीपराहारजी जोले--हिरण्यकाश्िपुने कृत्याको

हिरण्यकशिपु: श्रुत्वा तां कृत्यां बितथीकृताम्‌ । भी विफल हुई सुन अपने पुत्र प्र्लादको बुलाकर उनके इस

आहूय पुत्रै प्रच्छ प्रभावस्थास्य कारणम्‌॥ ९ | ्रभावका कारण पूछा ॥ १॥

हिरण्यकशिपुस्वाच

हिरण्यकक्षिपु बोला--ॐे प्रह्मद ! तू बड़ा

०. ०४०४ ध हे हार + २ | भावस है! तेरी ये वे मनरदिजनित है या

वर स्वाभाविकं ही है ॥ २ ॥

एवं पृष्टस्तदा पित्रा प्रहादोऽसुरबालकः ।

श्रीपराशरजी खोले--पिताके इस प्रकार पूछनेपर

प्रणिपत्य पितुः पादाविदै वच्ननमत्रलीत्‌ ॥ ३ | दैत्यकुमार प्रह्मदजीने उसके चरणों प्रणाम कर इस

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