Home
← पिछला
अगला →

बयालीसवाँ अध्याय

प्रासाद-लक्षण-वर्णन

भगवान्‌ हयग्रीव कहते हैं-- ब्रह्मन्‌! अब मैं | करे॥ १--७॥

सर्वसाधारण प्रासाद (देवालय)-का वर्णन क्‍

हूँ, सुनो। विद्वान्‌ पुरुषकों चाहिये कि जहाँ

मन्दिरका निर्माण कराना हो, वहाँके चौकोर

क्षेत्र; सोलह भाग करे। उसमें मध्यके चार

भागोंद्वार आयसहित गर्भ (मन्दिरके भीतरी

भागकी रिक्त भूमि) निश्चित करे तथा शेष

बारह भागोंको दीवार उठानेके लिये नियत

करे। उक्त बारह भागोंमेंसे चार भागकी जितनी

लंबाई है, उतनी ही ऊँचाई प्रासादकी दीवारोंकी

होनी चाहिये। विद्वान्‌ पुरुष दीवारोंकी ऊँचाईसे

दुगुनी शिखरकी ऊँचाई रखे। शिखरके चौथे

भागकी ऊँचाईके अनुसार मन्दिर्की परिक्रमाकी

ऊँचाई रखे। उसी मानके अनुसार दोनों पार्श्

भागोंमें निकलनेका मार्ग (द्वार) बनाना चाहिये।

ये द्वार एक-दूसरेके समान होने चाहिये। मन्दिरके

सामनेके भूभागका विस्तार भी शिखरके समान

ही करना चाहिये। जिस तरह उसकी शोभा हो

सके, उसके अनुरूप उसका विस्तार शिखरसे

दूना भी किया जा सकता है। मन्दिरके आगेका

सभामण्डप विस्तारमें मन्दिर्के गर्भसूत्रसे दूना

होना चाहिये। मन्दिरके पादस्तम्भ आदि भित्तिके

बराबर ही लंबे बनाये जायेँ। वे मध्यवती

स्तम्भोंसे विभूषित हों। अथवा मन्दिरके गर्भका

जो मान है, वही उसके मुख-मण्डप (सभामण्डप

या जगमोहन)-का भी रखे। तत्पश्चात्‌ इक्यासी

पदों (स्थानों) - से युक्त वास्तु-मण्डपका आरम्भ

इनमें पहले द्वारन्यासके समीपवर्ती पदोंके

भीतर स्थित होनेवाले देवताओंका पूजन करे।

फिर परकोटेके निकटवर्ती एवं सबसे अन्तके

पदोंमें स्थापित होनेवाले बत्तीस देवताओंकी पूजा

करे'॥ ८ ॥

यह प्रासादका सर्वसाधारण लक्षण है। अब

प्रतिमाके मानके अनुसार दूसरे प्रासादका वर्णन

सुनो ॥९॥

जितनी बड़ी प्रतिमा हो, उतनी ही बड़ी

सुन्दर पिण्डी बनावे। पिण्डीके आधे मानसे

गर्भका निर्माण करे और गर्भके ही मानके

अनुसार भित्तियाँ उठावे। भीतोंकी लंबाईके अनुसार

ही उनकी ऊँचाई रखे। विद्वान्‌ पुरुष भीतरकी

ऊँचाईसे दुगुनी शिखरकी ऊँचाई करावे । शिखरकी

अपेक्षा चौथाई ऊँचाईमें मन्दिरकी परिक्रमा बनवावे

तथा इसी ऊँचाईमें मन्दिरके आगेके मुख-मण्डपका

भी निर्माण करावे॥ १०--१२॥

गर्भक आठवें अंशके मापका रथकोकि निकलनेका

मार्ग (द्वार) बनावे। अथवा परिधिके तृतीय

भागके अनुसार वहाँ रथकों (छोटे-छोटे रथों)-

की रचना करावे तथा उनके भी तृतीय भागके

मापका उन रथोंके निकलनेके मार्ग (द्वार)-का

निर्माण करावे। तीन रथकोंपर सदा तीन वामोंकी

स्थापना करे॥ १३-१४॥

शिखरके लिये चार सूत्रोंका निपातन

करे । शुकनासांके ऊपरसे सूतको तिरा गिरावे।

१. नारदपुराण, पूर्यभाग, द्वितीय पाद, ५६वें अध्यायके ६०० से लेकर ६०३ तकके श्लोकपिं भी यहो बात कहो गयी है।

२. शिखरके चार भाग करके नौचेके दो भागोंकों 'शुकनासा' कहते हैं। उसके ऊपरके तोसरे गमे वेदौ होती है, जिसपर उसका

कण्ठमात्र स्थित होता है। सबसे ऊपरके चतुर्थ भागमें 'आमलसार' संक कण्ठका निर्माण कराया जाना चाहिये। जैसा कि मत्स्यपुराणमें

कहा है--

चतुर्धा शिखर॑ भज्य अर्धभागद्रवस्प॒ तु । शुकनासं प्रकुर्वीत उृतीये येदिका मता ॥

कण्ठमामलसारं तु चतुर्थे परिकल्पयेत्‌ ।

(२६९ । १८-१९)

← पिछला
अगला →