Home
← पिछला
अगला →

८६

* श्रीमद्धागबत *

{ अ*५

[4.4.444 4 3.344.444

प्राप्तिके ही हेतु हैं। सारी तपस्याएँ नारायणकी ओर ही ले

जानेवाली हैं, ज्ञानके द्वार भी नारायण हौ जाने जाते हैं।

समस्त साध्य और साधनोंका पर्यवसान भगवान्‌

नाययणमे ही है॥ १६॥ ये द्रष्टा होनेपर भी ईश्वर हैं,

स्वामी हैं; निर्विकार होनेपर भी सर्वस्वरूप हैं। उन्होंने ही

मुझे बनाया है और उनकी दृष्टिसे ही प्रेरित होकर मै उनके

इच्छानुसार सृष्टि-रचना करता हूँ ॥ १७ ॥ भगवान्‌ मायाके

गुणोंसे रहित एवं अनन्त हैं। सृष्टि, स्थिति और प्रलयके

लिये रजोगुण, स्वगुण और तमोगुण--ये तीन गुण

मायाके द्वारा उनमें स्वीकार किये गये हैं॥ १८ ॥ ये ही

तीनों गुण द्रव्य, ज्ञान और क्रियाका आश्रय लेकर

मायातीत नित्यमुक्त पुरुषको ही मायामे स्थित होनेपर कार्य,

कारण और कर्तापनके अभिमानसे बांध लेते हैं॥ १९ ॥

नारद! इन्द्रियातीत भगवान्‌ गुणोंक इन तीन आवरणेमि

अपने स्वरूपको भलीभाँति ढक लेते हैं, इसलिये लोग

उनको नहीं जान पाते । सारे संसारके और मेरे भी एकमात्र

स्वामी वे ही हैं॥ २० ॥

मायापति भगवान्‌ने एकसे बहुत होनेकी इच्छा

होनेपर अपनी मायासे अपने स्वरूपे स्वयं प्राप्त काल,

कर्म और स्वभावकों स्वीकार कर लिया॥२१॥

भगवान्‌की शक्तिसे ही कालने तीनों गुणोंमें क्षोभ उत्पन्न

कर दिया, स्वभावने उन्हें रूपान्तरित कर दिया और कर्मने

महत्तत्तको जन्म दिया॥ २२॥ रजोगुण और सत्वगुणकी

वृद्धि होनेपर महत्तत्तका जो विकार हुआ, उससे ज्ञान,

क्रिया और द्रव्यरूप तम:प्रधान विकार हुआ ॥ २३ ॥ वह

अहंकार कहलाया और विकास्कों प्राप्त होकर तीन

प्रकारका हो गया। उसके भेद हैं--वैकास्कि, तैजस और

तामस । नारदजी ! वे क्रमशः ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति ओर

द्रव्यशक्तिप्रधान रै ॥ २४॥ जब पञ्चमहाभूतोकि

कारणरूप तामस अहंकारमें विकार हुआ, तब उससे

आकाशकी उत्पति हुई । आकाशकी तन्मात्र ओर गुण

शब्द है । इस शब्दके द्वारा ही द्रष्टा ओर दृश्यका बोध

होता है ॥ २५॥ जब आकाशमें विकार हुआ, तब उससे

वायुकी उत्पत्ति हुई; उसका गुण स्पर्श है। अपने कारणका

गुण आ जानेसे यह शब्दवाला भी है। इन्द्रियॉमें स्फूर्ति,

शरीरम जीवनीशक्ति, ओज और बल इसौके रूप

हैं॥ २६॥ काल, कर्म और स्वभावसे वायुर्मे

भी विकार हुआ। उससे तेजकी उत्पत्ति हुई। इसका

प्रधान गुण रूप है। साथ ही इसके कारण आकाश और

वायुके गुण शब्द एवं स्पर्श भी इसमें हैं॥ २७ ॥ तेजके

बिकारसे जलकी उत्पत्ति हुई। इसका गुण है रस;

कारण-तक्त्वोंके गुण शब्द, स्पर्श और रूप भी इसमें

है॥ २८ ॥ जलके विकारसे पृथ्वीकी उत्पत्ति हुई, इसका

गुण है गन्ध । कारणके गुण कार्यमें आते हैं--इस

न्यायसे शब्द, स्पर्श, रूप और रस--ये चारों गुण भौ

इसमें विद्यमान हैं॥२९॥ वैकारिक अहङ्कारे मनकी

और इद्धियोके दस अधिष्ठातृ -देवता ओंकी भी उत्पत्ति

हुईं। उनके नाम हैं--दिशा, वायु. सूर्य, वरुण,

अश्विनीकुमार, अग्नि, इन्दर, विष्णु, भित्र और

प्रजापति ॥ ३० ॥ तैजस अहङ्कारके विकारसे श्रोत्र, त्वचा,

नत्र, जिह्म और घाण--ये पाँच ज्ञनिन्दरियां एवं वाक्‌,

हस्त, पाद, गुदा और जननेन्दिव--ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ

उत्पन्न हुईं। साथ हौ ज्ञानशक्तिरूप बुद्धि और

क्रियाशक्तिरूप प्राण भी तैजस अहङ्कारसे ही उत्पन्न

हुए॥ ३१॥

श्रेष्ठ त्रह्मवित्‌ जिस समय ये पञ्चभूत, इन्द्रिय, मन

और सत्त आदि तीनों गुण परस्पर संगठित नहीं थे, तब

अपने रहनेके लिये भोगोंके साधनरूप शरीरकी रचना

नहीं कर सके ॥ ३२ ॥ जब भगवान इन्हें अपनी शक्तिसे

प्रेरित किया, तब वे तत्त्व परस्पर एक दूसरेके साथ मिल

गये और उन्होंने आपसमें कार्य-कारणभाव स्वीकार करके

व्यष्टि-समष्टिरूप पिष्ड और ब्रह्माण्ड दोनोंकी रचना

की ॥ ३३ ॥ वह ब्रह्माण्डरूप अंडा एक सहसत वर्षतक

निर्जीवरूपसे जलमें पड़ा रहा; फिर काल, कर्म और

स्वभावको स्वीकार करनेवाले भगवानने उसे जीवित कर

दिया॥ ३४ ॥ उस अंडेको फोड़कर उसमेंसे वही विराट

पुरुष निकला, जिसकी जङ्घा, चरण, भुजाएँ, नेत्र, मुख

ओर सिर सहस्तरोंकी संख्यामें हैं॥ ३५ ॥ विद्वान्‌ पुरुष

(उपासनाके लिये) उसौके अङ्गम समस्त लोक और

उनमें रहनेवाली वस्तुओंकी कल्पना करते हैं। उसकी

कमरसे नीचेके अङ्गोपिं सातो पातालकी और उसके पेड़से

ऊपरके अङ्गो सातो स्वर्गकी कल्पना कौ जाती

है ॥ ३६॥ ब्राह्मण इस विराट्‌ पुरुषका मुख हैं, भुजां

क्षत्रिय हैं, जाँघोंसे वैश्य और पैरोसे शूद्र उत्पन्न हुए

← पिछला
अगला →