<६ ऋग्वेद संहिता भाष-१
६८७, वैश्वानरो महिम्ना विश्वकृष्टि्भरद्वाजेषु यजतो विभावा ।
शातवनेये शतिनीभिरग्निः पुरुणीथे जरते सूनृतावान् ॥७ ॥
ये वैश्वानर (विश्व पुरुष) अग्निदेव अपनी महिमा से सब मनुष्यो के स्वामी हैं । अन्नदाताओं में अतिपूजनीय
ओर बैभवशालो है । “शतवन' के पुत्र 'पुरुनीध' के यज्ञ में सत्यवान् अग्निदेव की सैकड़ों स्तोत्रों से स्तुति की
जाती है ॥ ७ ॥
[ सूक्त - ६० ]
[ऋषि - नोधा गौतम । देवता - अग्नि | छद त्रिष्टप् ]
६८८. वह्लिं यशस॑ विदथस्य केतु सुप्राव्यं दूतं सद्योअर्थम्+
द्विजन्मानं रयिमिव प्रशस्तं रातिं भरद भृगवे मातरिश्वा ॥९ ॥
हविवाहक, यशस्वौ, यज्ञ पताका सदृश लहराने वाले, उत्तम रक्षक, शीघ्र धन प्रदायक, देवताओं तक हवि
पहुँचाने वाले, द्विज (अरणि मंथन और मंत्ररूप विद्या इन दो के द्वारा उद् भूत), धन के समान प्रशंसित अग्निदेव
को वायुदेव ने भृगु का मित्र बनाया ॥१ ॥
६८९. अस्य शासुरुभयासः सचन्ते हविष्मन्त उशिजो ये च मर्ता:।
दिवश्चित्पूर्वो न्यसादि होतापृच्छयो विश्पतिर्विक्षु वेधाः ॥२ ॥
देवों को हवि समर्पित करते हुए समुत्रत जीवन जीने वाले तथा सापान्य जीवन जीने वाले मनुष्य दोनों
अग्निदेव के शासन में ही रहते हैं पूजनीय, जलवर्षक, प्रजापालक, होतारूप अग्निदेव सूर्योदय से पहले हो
(याजकों द्वारा यज्ञवेदी पर यज्ञानि के रूप मे) प्रकट होते हैं ॥२ ॥
६९०. तं नव्यसी इद आ जायमानमस्मत्सुकौर्तिर्मथुजिहवमश्याः ।
यमृत्विजो वृजने मानुषासः प्रयस्वन्त आयवो जीजनन्त ॥३ ॥
जीवन-संग्राम में विजयी होते हुए, उन्नति की आकांक्षा करने वाले मनुष्य जिन अग्निदेव को उत्पन्न करते
हैं, उन, प्रत्येक हदय में विराजमान, मधुर वाणी वाले, उत्तम, यशस्वी अग्निदेव को हमारी नवीन स्तुतियाँ
प्राप्त हों ॥३ ॥
६९१. उशिक्यावको वसुर्मानुषेषु वरेण्यो होताधायि विक्षु।
दमूना गृहपतिर्दम ओं अग्निर्भुवद्रयिपती रयीणाम् ॥४ ॥
धन-वै भव प्राप्त करने की कामना से पवित्रता प्रदान करने वाले ये अग्निदेव, याजकों द्वारा होतारूप मे वरण
किये जाते हैं । दोषों का दमन करने वाले, गृह पालक श्रेष्ठ ऐश्वर्य के स्वामी, ये अग्निदेव यज्ञो मे वेदी पर स्थापित
किये जाते हैं ॥४ ॥
६९२. त॑ त्वा वयं पतिमग्ने रयीणां प्र शंसामो मतिभिगेतिमासः।
आशं न वाजम्भरं मर्जयन्त प्रातर्मक्षू धियावसुर्जगम्यात् ॥५ ॥
है अग्निदेव । हम गौतम वंशज आपकी अपनी बुद्धि से प्रशंसा करते ह । अन्न देने वाले, पवित्र करने
बाले, अश्व की तरह बल, सम्पन्न आप, हमें धन प्राप्त करने का कौशल प्रदान करें ओर प्रातःकाल (यज्ञ में )
शीघ्र ही पधार! ॥५ ॥