५६ * संवर मार्कण्डेयपुराण * वि
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छोटा -सा शत्रु भी यदि दाया न जाय तो बहुत | कः । जिस प्रकार सूर्य आठ महीनॉतक अपनी
बड़ी हानि कर सकता है। जैसे छोटा-सा । किरणोंसे पृथ्वीका जल सोखते रहते हैं, इसी
सेमलका बीज एक महान् बृक्षके रूपमें परिणत | प्रकार भूश्च उपायोंसे धीरे-धीरे कर आदिका
होता है, उक्ष प्रकार लघु शत्रु भी समय आनेपर | संप्रह करे । जैसे यमगज सपय ओऔनैपर प्रिंय-
अत्यन्त प्रजल हो जाता है। अतः दुर्लहावस्थामें | अप्रिय सभीको मृत्युपाशमें बोधते हैं, उसो
ही उसे उख्कड़ फेंकना चाहिये। जैसे चन्द्रमा | प्रकार राजा भी प्रिय-अप्रिय तथा साधु और
और सूर्य अपनी क्विरणोंका सर्व सपान रूपसे | दुक प्रति रूमान भावसे राजनीतिका प्रयोग
प्रसा करते हैं, उसी प्रकार नोतिके लिये | करे। जैसे पूर्ण चन्द्रमा टेखकर सब मनुष्य प्रसन्न
राजाको भी समस्त प्रजापर सपान भाव रखना , होते हैं, उसी प्रकार जिस राजाके प्रति समस्त
चाहिये । वेश्या. कमल, शरभ, शुलिका, गर्भिणी | प्रजाको समानरूपसे सन्तोष हो, बड़ी श्रेष्ठ एवं
सत्र सतत तथा ग्वाजेकौ स्त्रीसे भी राजाको , चन्द्रमाके ब्रतका पालग करनेवाला है। जैसे वायु
बुद्धि सीखनी चांहवे। राजा क्लेश्शाकी भति | गुरूपसे समस्त प्रागियोंके भीतर सञ्ञा करती
सबको प्रसत्र ग्खखनेकों चेष्टा करें, कमल -पुष्पके रहतो हैं, ठसी प्रकार राजा भी गुस्तचरके द्वारा
समा^ सवक अपनी ओर आकृष्ट करें, शरभके | पुरवासियों, मन्त्रियों तथा बन्धु-बान्धबोंके मतका
सलमान पराक्रमो बने, शूलिकाक्ती भाँति सहसा भाव जाननेकी नेष्टा करे।*
शत्रुका विध्वंस करे। जैसे गर्भिणोके स्तनमे| तेरा! जिसके चित्तकों दूसरे लोग लोभ,
भावों सन््तानके लिवे दृधक्ता संग्रह होने लगता । कामना अथवा अर्थसे नहीं खोंच सकते, वह
है, उसो प्रकार राजा भविष्के लिये सक्षयशील , राजा स्वर्गलोके जाता है। जो अपने धर्मसे
बने और जिस प्रकार ग्वालेकी स्त्री दूधसे नाना | बिचलित हो कुमार्गपर जानेवाले मूर्ख मनुष्योंको
ग्रकारके खाद्य पदार्थं तैयार करतो है, वैसे हौ | फिर धर्मम लगाता है, वह राजा स्वर्गमे जाता
राजाकों भी भाति-भाँतिकी कल्पनामें पटु होना हैं। वत्स! जिसके राण्यमें वर्णधमं और
चाहिथे। वह पृथ्वीका पालन करते समय एर, | आन्नमधर्मझों हानि नहीं पहुँचतो, उसे इस
सूर्य, यम, चन्द्रमा तथा वायु-इनत पाँचोंके रूप लोक और गरलोकपें भौ सनातन सुख प्राप्त
धाराग करे। जैसे इन्द्र चार् महीने वर्षा करके | होता है स्वयं दुष्टबुद्धि पुरुषोंद्रारा धर्मसे
चृध्वीयर रहनंवाले प्राणिषोंकों तृप्त करते हैं, विचलित न होकर ऐसे लोगोंको अपने धर्ममें
डसी प्रकार शजा दानक द्वारा प्रजाजनॉंको लन्तु | लगाना ही राजाका सबसे बड़ा कर्तव्य है और
^ चेय्धिषिल्यलिक्नं चौजसेस च शत्मले: । चद्स्सू्॑स्वक्पेण नले पृश १
बस्धली -बाशरभशलिशार्गाविणीज्षानात् । प्रगा नृपेण चादैशा तथा गपःनयोपितः॥
इफ्ारंदगस्ोपाण त वयोधी्षनिः । चरि पडू कुर्वोत भहीगालनकर्मीण॥
श्रिन्दथवुगे गात् होगोत्प्ण तम् ` आप्याचयेत् टथा लोके रिीर्मरीपमिः ॥
तथनएँ वन सूर्यस्तौ रग्नि एनम । यृश्ष्पेणीणाष्युधानेश तथो शुल्कादिक ५:॥
रः यः. पिदप्वौ प्राशछाले नियच्छुति | तथा गि५।गररं राजा दुष्टादुे सी भवेत् ॥
र्ना लोक्य सथा ग्रति न् जावते नरः । एवं तत प्रलाः सरथा निदृतास्तजाशिज्रता,॥
या? सर्वभूलपू निगृहश्चते यथा। सं वृष्छच्यैः भौरामात्यदिवन्धुषु॥
(२७। १९. -२5)