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आप संवर्तं (प्रलयकाल), वर्तकं (नित्य

विद्यमान), संवर्तक (प्रलयकालीन ) ओर बलाहक

(मेघ) हैं। आप घण्टा धारण करनेके कारण

घण्यकी, घण्टकी ओर चण्टी कहलाते ६ । मस्तकपर

चोटी धारण करते हैँ । खरे पानीका समुद्र आपका

ही स्वरूप है ।* आप ब्रह्मा है । आपके मुखमें

कालाग्रिका निवास है। दण्ड धारण करनेवाले,

सिर मुँड़ाये रहनेवाले तथा त्रिदण्ड धारण करनेवाले

यति आपके ही स्वरूप हैँ । चारो युग, चारों वेद,

चार प्रकारके होता और चौराहा आप हो है । चारों

आश्रमेकि नेता और चारो वर्णोकी उत्पत्ति करनेवाले

भी आप ही हैं। क्षर (विनाशो) अक्षर (अविनाशी ),

प्रिय, धूर्त, गर्णोह्वारा गणनीय एवं गणपति भी

आप ही है । आप लाल रेगकौ माला और वस्त्र

धारण करते हैं। पर्वत एवं वाणीके स्वामी ई ।

पार्वतीजीके प्रियतम हैं। शिल्पकारोंके स्वामी,

शिल्पियोंमें श्रेष्ठ तथा समस्त शिल्पकारोके प्रवर्तक

हैं। आपने ही भगके नेत्रोंका विनाश किया है।

आप अत्यन्त क्रोधी हैं। पूषाके दाँत भी आपने ही

* संक्षिप्त ब्रह्मपुराण *

तोड़े है । स्वाहा, स्वधा, वषट्कार ओर नमस्कार--सब

आप ही है । आपको नमस्कार है। आपका त्रत

गृढ रहता है । आप स्वयं भी गृढ़ हैं तथा गृढ

ब्रतका आचरण करनेवाले महापुरुष सदा आपकी

सेवामें रहते है । आप ही तरने और तारनेवाले है ।

सब भूतोंमें आप ही संचालकरूपसे स्थित है ।

धाता (धारण करनेवाले), विधाता (विधान

करनेवाले), संधाता (जोड़नेवाले), निधाता (बीज

डालनेवाले), धारण, धर, तप, ब्रह्य, सत्य, ब्रह्मचर्य

तथा आर्जव (सरलता) आपके ही नाम है । आप

सम्पूर्ण भूतोंक आत्मा, सब भूतोंको उत्पन्न करनेवाले,

भूतस्वरूप, भूत, भविष्य तथा वर्तमानके उद्धावक,

भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, भूत, अग्नि और महेश्वर

है । ब्रह्मावर्त, सुरावर्तं ओर कामावर्त आपके ही नाम

है । आपको नमस्कार है। आप कामदेवके विग्रहको

दग्ध करनेवाले है । कर्णिकार (कनेर) पुष्पोंकी

माला आपको अधिक प्रिय है। आप गौओंके नेता,

गोप्रचारक (इन्दियोकि संचालक) तथा गौओंके

स्वामी नन्दीपर्‌ सवारी करनेवाले है ।

* सिंहो मृगाणां च पतिस्तक्षकोऽनन्तभोगिनाम्‌ । क्षीरोदो द्युदधीनां च मन्त्राणां प्रणवस्तथा ॥

वज्र॑ प्रहरणानां च व्रतानां सत्यमेव च। त्वमेवेच्छा च द्वेषश्च रागो मोह: शमः क्षमा॥

व्यवसायो धृतिर्लोभः कामक्रोधौ जयाजयौ । त्वं गदी त्तं शरी चापी खट्वाङ्गी मुदरी तथा॥

छेत्ता भेत्ता प्रहर्ता च नेता मन्तासि नो मतः। दशलक्षणसंयुक्तो धर्मोऽर्थः काम एव च॥

इन्दुः समुद्रः सरितः पल्ल्वलानि सरांसि च । लतावल्यस्तृणौषध्यः पशवों मृगपक्षिणः॥

द्रव्यकर्मगुणारम्भः कालपुष्यफलप्रदः। आदिश्चान्तश्च मध्यश्च गायत्र्योङ्कार एव च ॥

हरितो लोहितः कृष्णो नीलः पतस्तथारुणः। कटर कपिलो बधु: कपोतो मेचकस्तथा ॥

सुवर्णरेता विख्यातः सुवर्णश्चाप्यथो मतः। सुवर्णनामा च तथा सुवर्णप्रिय एव च॥

त्वमिन्द्रश्च यमश्चैव वरुणो धनदोऽनिलः। उत्पुल्लश्षित्रभानुश्ष स्वर्भानुर्भानुरेव च॥

होत्रं होता च होप्यं च हुत॑ चैव तथा प्रभुः । त्रिसौपर्णस्तथा ब्रह्मन्‌ यजुषां शतरुद्रियम्‌ ॥

पवित्रं च पवित्राणां मङ्गलानां च मङ्गलम्‌ । प्राणश्च त्वं रजश्च त्वं तमः सत्वयुतस्तथा ॥

प्राणोऽपानः समानश्च ठदानो व्यान एवं च। उन्मेषश्च निमेषश्च श्रुतृड्‌ जृप्भा तथैव च॥

लोहिताङ्गश्च दंष्टौ च महावक्त्रे महोदर:। शुचिरोपा दरिच्छपश्रुरू्ध्वकेशश्चलाचलः॥

गीतवादित्रतृत्याङ्गो गीतवादनकप्रियः। मत्स्यो जालो जलोऽजय्यो जलव्यालः कुटीचरः ॥

विकालश्च सुकालश्च दुष्कालः कालनाशनः। मृत्युश्चैवाक्षयोऽन्तश्च क्षमा माया करोत्कर:॥

संवतो वर्तकश्चैव संवर्तकयलाहकौ । चण्टाकौ घण्टकी घण्टी चूडालो संवणोदधिः॥

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