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अयुजो भोजयेत्कामं द्विजानन्ते ततो दिने ।
दद्यादरथेषु पिण्डे च परेतायोच्छिष्ठसन्निधौ ।॥ २०
वार्यायुधग्रतोदास्तु दण्डश्च द्विजभोजनात् ।
स्प्रष्टव्योउनन्तरं वर्णैः शुद्धेरन्ते ततः क्रमात् ॥ २१
ततस्खवर्णधर्मा ये विप्रादीनामुदाहता: ।
तान्कुर्वीति पुपाअ्जीवेश्निजघर्मार्जनैस्तथा ॥ २२
मृताहनि च कर्तव्यमेकोहिष्टमत: परम् ।
आदह्वानादिक्रियादैवनियोगरहितं हि ततत् ॥ २३
एकोऽ््यस्तत्र॒दातव्यस्तथैवैकपवित्रकम् ।
परेताय पिण्डो दातव्यो भुक्तवत्सु द्विजातिषु ॥ २४
प्श्रश्च तत्राभिरतिर्यजमानैर्विजन्मनाम् ।
अक्षव्यममुकस्येति वक्तव्यं विरतौ तथा । २५
एकोदिष्टपयो धर्म॑ इत्थमावत्सरात्स्मृत: ।
सपिण्डीकरणं तस्मिन्काले राजेन्द्र तच्छृणु ॥ २६
एकोदिष्टविधानेन कार्य तदपि पार्थिव ।
संवत्सरेऽथ षष्ठे वा मासे वा द्वाद्दोऽद्धि तत् ॥ २७
तिलगन्धोदकैर्यक्तं तत्र॒ पात्रचतुष्टयम् ॥ २८
पात्रं प्रेतस्य तत्रैकं चैत्रं पात्रत्रयं तथा।
सेचयेत्पितृपात्रेषु प्रेतपात्रं ततखिषु ॥ २९
ततः पितृत्वमापन्ने तस्मि्ेते महीपते ।
श्राद्धूधरमैरशेषैस्तु. तत्पूर्वानर्चयेत्पितृन् ॥ ३०
पुत्रः पौत्रः प्रपौत्रो वा भ्राता वा भ्रातृसन्ततिः ।
सपिण्डसन्ततिर्वापि क्रियाहों तृप जायते ॥ ३९
तेषापभावे सर्वेषां समानोदकसन्ततिः ।
मातुपक्षसपिण्डेन सम्बद्धा ये जलेन वा ॥ ३२
कुलद्वयेऽपि चोच्छिन्ने सीभिः कार्याः क्रिया नृप ॥ ३३
सङ्कानान्तर्गतैर्वापि कार्याः प्रेतस्य चक्रिया: ।
उत्सन्रबन्धुरिक्याद्म कारयेदवनीपतिः ॥ ३४
तृत्तीय अंश
२०५
अज्ञौचके अन्तमे इच्छनुसार अयुग्म (तीन, पाँच,
सात, नौ आदि) ब्राह्मणोंको भोजन करावे तथा उनकी
उच्छिष्ट (जूठन) के निकट प्रेतकी तृप्तिके लिये कुझापर
पिण्डदान करे॥ २०॥ अज्नौच-शुद्धि हो जानेपर
ब्रह्मभोजके अनन्तर ब्राह्मण आदि चारों वर्णो क्रमशः
जल, सख, प्रतोद (कोड़ा) और त्यठीका स्पर्द करना
चाहिये ॥ २१ ॥
तदनन्तर, ब्राह्मण आदि वर्णकि ओ-जो जातीय धर्म
बतलाये गये हैं उनका आचरण करे; और स्वधर्मानुसार
उपार्जित जीविकासे निर्याह करे ॥ २२॥ फिर प्रतिमास
मृत्युतिथिपर एकोहिए्ट-श्राद्ध करे जो आवाहनादि क्रिया
और विश्वेदेवसम्बन्धी ऋह्मणके आमन््ण आदिसे रहित
होने चाहिये ॥ २३ ॥ उस समय एक अर्प्य और एक
पवित्रक देना चाहिये तथा बहुत-से ब्राह्मणोंक भोजन
करनेपर भी मृतकके लिये एक ही पिण्ड-दान करना
चाहिये । २४॥ तदनन्तर, यजमानके “अभिरम्यताम'
ऐसा कहनेपर ब्राह्मणणण “अभिरता: स्मः' ऐसा कहें और
फिर पिण्डदान समाप्त होनेपर “अमुक्स्य अक्षय्यमिट
म्रुपतिष्ठताम' इस वाक्यका उद्चारण करें ॥२७॥ इस
प्रकार एक बर्षतक प्रतिपास एकोरिष्टकः करनेका निधान
है। हे राजेन्द्र ! वर्धके समाप्त होनेपर सपिण्डोकरण करे
उसकी विधि सुनो ॥ २६ ॥
है पार्थिव ! इस सपिष्डोकरण कर्मक भी एक वर्ष,
छः मास अथवा बारह दिनके अनन्तर एकोहिप्टश्राद्धको
विधिसे ही करना चाहिये ॥ २७ ॥ इसमें तिल, गन्ध और
जलझे युक्त चार पात्र रखे । इनमेंसे एक पात्र मृत -पुरुषका
होता है तथा तीन पितृगणके होते हैं। फिर मृत-पुरुषके
पात्रस्थित जल्मदिसे पितृगणके पात्रॉका सिज्ञन करे
॥ २८-२९॥ इस प्रकार मृत-पुरुषको पितृत्व प्राप्त हो
जानेपर सम्पूर्ण श्राद्धधर्मोकि द्वारा उस मृत-पुरुषसे ही
आरण्ग कर फ्तृगणका पूजन करे ॥ ३० ॥ हे राजन् !
पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, भाई, भतोजा अथवा अपनों सपिण्ड
सन्तते उत्पन्न हुआ पुरुष ही श्राद्धादि क्रिया करनेका
अधिकारी होता है॥ ३१ ॥ यदि इन स्का अभाव हो तो
समानोदककी सन्तति अथवा मातृपक्षके सपिण्ड अथवा
समानोदककों इसक् अधिकार है ॥ ३२ ॥ हे राजन् !
मातृकुल और पितृकुल दोनेकि नष्ट हो जानेपर स्त्री ही इस
क्रियाको करें; अथवा [यदि स्त्री भी न हो तो]
साथियोंमेंसे ही कोई करे या बान्धवहीन मृतकके घनसे
राजा हो उसके सम्पूर्ण प्रेत-कर्म यरे ॥ ३३-३४ ॥