Home
← पिछला
अगला →

आ> १३ ]

अयुजो भोजयेत्कामं द्विजानन्ते ततो दिने ।

दद्यादरथेषु पिण्डे च परेतायोच्छिष्ठसन्निधौ ।॥ २०

वार्यायुधग्रतोदास्तु दण्डश्च द्विजभोजनात्‌ ।

स्प्रष्टव्योउनन्तरं वर्णैः शुद्धेरन्ते ततः क्रमात्‌ ॥ २१

ततस्खवर्णधर्मा ये विप्रादीनामुदाहता: ।

तान्कुर्वीति पुपाअ्जीवेश्निजघर्मार्जनैस्तथा ॥ २२

मृताहनि च कर्तव्यमेकोहिष्टमत: परम्‌ ।

आदह्वानादिक्रियादैवनियोगरहितं हि ततत्‌ ॥ २३

एकोऽ््यस्तत्र॒दातव्यस्तथैवैकपवित्रकम्‌ ।

परेताय पिण्डो दातव्यो भुक्तवत्सु द्विजातिषु ॥ २४

प्श्रश्च तत्राभिरतिर्यजमानैर्विजन्मनाम्‌ ।

अक्षव्यममुकस्येति वक्तव्यं विरतौ तथा । २५

एकोदिष्टपयो धर्म॑ इत्थमावत्सरात्स्मृत: ।

सपिण्डीकरणं तस्मिन्काले राजेन्द्र तच्छृणु ॥ २६

एकोदिष्टविधानेन कार्य तदपि पार्थिव ।

संवत्सरेऽथ षष्ठे वा मासे वा द्वाद्दोऽद्धि तत्‌ ॥ २७

तिलगन्धोदकैर्यक्तं तत्र॒ पात्रचतुष्टयम्‌ ॥ २८

पात्रं प्रेतस्य तत्रैकं चैत्रं पात्रत्रयं तथा।

सेचयेत्पितृपात्रेषु प्रेतपात्रं ततखिषु ॥ २९

ततः पितृत्वमापन्ने तस्मि्ेते महीपते ।

श्राद्धूधरमैरशेषैस्तु. तत्पूर्वानर्चयेत्पितृन्‌ ॥ ३०

पुत्रः पौत्रः प्रपौत्रो वा भ्राता वा भ्रातृसन्ततिः ।

सपिण्डसन्ततिर्वापि क्रियाहों तृप जायते ॥ ३९

तेषापभावे सर्वेषां समानोदकसन्ततिः ।

मातुपक्षसपिण्डेन सम्बद्धा ये जलेन वा ॥ ३२

कुलद्वयेऽपि चोच्छिन्ने सीभिः कार्याः क्रिया नृप ॥ ३३

सङ्कानान्तर्गतैर्वापि कार्याः प्रेतस्य चक्रिया: ।

उत्सन्रबन्धुरिक्याद्म कारयेदवनीपतिः ॥ ३४

तृत्तीय अंश

२०५

अज्ञौचके अन्तमे इच्छनुसार अयुग्म (तीन, पाँच,

सात, नौ आदि) ब्राह्मणोंको भोजन करावे तथा उनकी

उच्छिष्ट (जूठन) के निकट प्रेतकी तृप्तिके लिये कुझापर

पिण्डदान करे॥ २०॥ अज्नौच-शुद्धि हो जानेपर

ब्रह्मभोजके अनन्तर ब्राह्मण आदि चारों वर्णो क्रमशः

जल, सख, प्रतोद (कोड़ा) और त्यठीका स्पर्द करना

चाहिये ॥ २१ ॥

तदनन्तर, ब्राह्मण आदि वर्णकि ओ-जो जातीय धर्म

बतलाये गये हैं उनका आचरण करे; और स्वधर्मानुसार

उपार्जित जीविकासे निर्याह करे ॥ २२॥ फिर प्रतिमास

मृत्युतिथिपर एकोहिए्ट-श्राद्ध करे जो आवाहनादि क्रिया

और विश्वेदेवसम्बन्धी ऋह्मणके आमन््ण आदिसे रहित

होने चाहिये ॥ २३ ॥ उस समय एक अर्प्य और एक

पवित्रक देना चाहिये तथा बहुत-से ब्राह्मणोंक भोजन

करनेपर भी मृतकके लिये एक ही पिण्ड-दान करना

चाहिये । २४॥ तदनन्तर, यजमानके “अभिरम्यताम'

ऐसा कहनेपर ब्राह्मणणण “अभिरता: स्मः' ऐसा कहें और

फिर पिण्डदान समाप्त होनेपर “अमुक्स्य अक्षय्यमिट

म्रुपतिष्ठताम' इस वाक्यका उद्चारण करें ॥२७॥ इस

प्रकार एक बर्षतक प्रतिपास एकोरिष्टकः करनेका निधान

है। हे राजेन्द्र ! वर्धके समाप्त होनेपर सपिण्डोकरण करे

उसकी विधि सुनो ॥ २६ ॥

है पार्थिव ! इस सपिष्डोकरण कर्मक भी एक वर्ष,

छः मास अथवा बारह दिनके अनन्तर एकोहिप्टश्राद्धको

विधिसे ही करना चाहिये ॥ २७ ॥ इसमें तिल, गन्ध और

जलझे युक्त चार पात्र रखे । इनमेंसे एक पात्र मृत -पुरुषका

होता है तथा तीन पितृगणके होते हैं। फिर मृत-पुरुषके

पात्रस्थित जल्मदिसे पितृगणके पात्रॉका सिज्ञन करे

॥ २८-२९॥ इस प्रकार मृत-पुरुषको पितृत्व प्राप्त हो

जानेपर सम्पूर्ण श्राद्धधर्मोकि द्वारा उस मृत-पुरुषसे ही

आरण्ग कर फ्तृगणका पूजन करे ॥ ३० ॥ हे राजन्‌ !

पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, भाई, भतोजा अथवा अपनों सपिण्ड

सन्तते उत्पन्न हुआ पुरुष ही श्राद्धादि क्रिया करनेका

अधिकारी होता है॥ ३१ ॥ यदि इन स्का अभाव हो तो

समानोदककी सन्तति अथवा मातृपक्षके सपिण्ड अथवा

समानोदककों इसक् अधिकार है ॥ ३२ ॥ हे राजन्‌ !

मातृकुल और पितृकुल दोनेकि नष्ट हो जानेपर स्त्री ही इस

क्रियाको करें; अथवा [यदि स्त्री भी न हो तो]

साथियोंमेंसे ही कोई करे या बान्धवहीन मृतकके घनसे

राजा हो उसके सम्पूर्ण प्रेत-कर्म यरे ॥ ३३-३४ ॥

← पिछला
अगला →