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सृष्टिखण्ड ]

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अनिच्छासे गङ्गाम मरनेवाल् मनुष्य स्वर्ग और मोक्षको

भी प्राप्त करता है। सत्त्वगुणमें स्थित योगयुक्त मनीषी

पुरुषको जो गति मिलती है, वही गङ्गाजीमे प्राण

त्यागनेवाले देहधारियोंको प्राप्त होती है। एक मनुष्य

अपने शरीरका शोधन करनेके लिये हजारों चाद््रायण-

त्रत करता है और दूसरा मनचाहा गङ्गाजीका जल पीता

है--उन दोनोंमें गल्ञाजलका पान करनेवाला पुरुष ही

श्रेष्ठ है। मनुष्यके ऊपर तभीतक तीर्थो, देवताओं और

वेदो प्रभाव रहता है, जबतक कि वह गद्गाजीको नहीं

प्राप्त कर लेता।

भगवती गङ्गे ! वायु देवताने स्वर्ग, पृथ्वी और

आकादापे साढ़े तीन करोड़ तीर्थ बतलाये हैं; ये सब

तुम्हारे जलम विद्यमान हैं। गङ्गे ! तुम श्रीविष्णुका

चरणोदक होनेके कारण परम पवित्र हो। तीनों ल्त्रेकॉमें

गमन करनेसे त्रिपथगामिनी कहल्मती हो । तुम्हारा जल

धर्ममय है; इसलिये तुम धर्मद्रवीके नामसे विख्यात हो ।

जाहवी ! मेरे पाप हर लो। भगवान्‌ श्रीविष्णुके चरणोंसे

तुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ है। तुम श्रीविष्णुद्वारा सम्मानित

तथा बवैष्णवी हो । मुझे जन्मसे लेकर मृत्युतकके पापोसे

बचाओ। महादेवी ! भागीरथी ! तुम श्रद्धासे,

शोभायमान रजःकणोंसे तथा अमृतमय जलसे मुझे

पवित्र करों ।* इस भावके तीन इलोकॉका उच्चारण

करते हुए जो गङ्गाजीके जलमें खान करता है, वह करोड़

जन्मोंके पापसे निःसन्देह मुक्त हो जाता है। अब मैं

गज्जाजीके मूछ-मन्त्रका वर्णन करूँगा, जिसे साक्षात्‌

श्रीहरिने वतलया है। उसका एक बार भी जप करके

मनुष्य पवित्र हो जाता तथा श्रीविष्णुके श्रीविग्रहमें

प्रतिष्ठित होता है। वह मन्त्र इस प्रकार है---“३:० नमो

गङ्गायै विश्वरूपिण्यै नारायण्यै नमो नमः ।' (भगवान्‌

+ शरीगङ्गाजीकी महिसा और उनकी उत्पत्ति +

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श्रीनारायणसे प्रकट हुई विश्वरूपिणी गङ्गाजीको बारंबार

नमस्कार दै ।)

जो मनुष्य गङ्गातीरकी मिट्टी अपने मस्तकपर धारण

करता है, वह गज्जामें स्नान किये बिना ही सब पापोंसे

मुक्त हो जाता है। गज्जाजीकी लहरोंसे सटकर बहनेवाली

वायु यदि किसीके दारीरका स्पर्श करती है, तो बह घोर

पापसे शुद्ध होकर अक्षय स्वर्गका उपभोग करता है।

मनुष्यकी हड्डी जबतक गङ्गाजीके जले पड़ी रहती है,

उतने ही हजार वर्षोतक वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता

है। माता-पिता, बन्भु-बान्धव, अनाथ तथा गुरुजनॉफी

हड्डी गङ्गाजीमे गिरानेसे मनुष्य कभी स्वर्गसे भ्रष्ट नहीं

होता। जो मानव अपने पितरोंकी हड्डियोंके टुकड़े

बटोरकर उन्हें गज़ाजीमें डालनेके लिये ले जाता है, वह

पग-पगपर अश्वमेध-यज्ञका फल प्राप्त करता है। गङ्गा-

तीरपर बसे हुए गाँव, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े तथा

चर-अचर--सभी प्राणी धन्य हैं।

विप्रवरो ! जो गश्गाजीसे एक कोसके भीतर प्राण-

त्याग करते हैं, वे मनुष्य देवता ही हैं; उससे बाहरके

मनुष्य ही इस पृथ्वीपर मानव हैं। गड्जास्नानके लिये यात्रा

करता हुआ यदि कोई मार्गमे हौ मर जाता है, तो वह भी

स्वर्गको प्राप्त होता है। त्राह्मणो ! जो लोग गङ्गाजीकी

यात्रा करनेवाले मनुष्योंकों वहाँका मार्ग बता देते हैं, उन्हें

भी परमपुण्यकी प्राप्ति होती है और ते भी गल्जास्तानका

फल पा कते हैं। जो पाखण्डियोंके संसर्गसे विचारशक्ति

खो बैठनेके कारण गङ्गाजीकी निन्दा करते है, वे घोर

नरकमें पड़ते हैं तथा वहाँसे फिर कभी उनका उद्धार

होना कठिन है। जो सैकड़ों योजन दूरसे भी “गद्जा-गज़ा'

कहता है, वह सब पापॉसे मुक्त हो श्रीविष्णुल्त्रेकको प्राप्त

होता है।+ जो मनुष्य कभी गड्जाजीमें स्नानके लिये

*#चिष्णुपादार्षसिम्यूतै शङ

त्रिपथगाभिति । धर्मद्रवीति विखूयाते पै में हर जाद्ववि ॥

विष्णुपादप्रसूतासि वैष्णयी विष्णुपृजिता । करहि माभेनसस्तस्मादाजन्पपरणान्तिकात्‌ ॥

श्रद्धया घर्मसम्पूर्णे श्रोमता रजसा च ते। अमृतेन महादेवि भागीरथि पुनीहि माम्‌ ॥

(६० ॥ ६०--६२)

5 गङ्गा गङ्गेति यो च्रयाद्‌ योजनायौ दातैरपि । मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुरतेकं स गच्छति ॥

(६० ॥ ७८.)

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