चतुर्ध स्कन्ध
अ] +
न २०५
ॐच ममैतौ मौ मौ ओतौ मो ममौ न तै य ये आय कय ति तौ मै ॐ नि मै जय जय आय नि जौ त ये जय जय ति जम ले निनि ओ नि मे निम मौ औऔ है मै
आठवाँ अध्याय
धुवका वन-गपन
श्रीपैत्रेयजी कहते हैं--शत्रुसूदन॒बिदुरजी !
सनकादि, नारद, ऋभु, हंस, अरुणि और यति--
क्रह्माजीके इन नैष्टिक ब्रह्मचारी पुत्रेन गृहस्थाश्रमे प्रवेश
नहीं किया (अतः उनके कोई सन्तान नहीं हुई) । अधर्म
भी बह्माजीका ही पुत्र था, उसकी पलीका नाम था मृषा ।
उसके दम्भ नामक पुत्र और माया नामकी कन्या हुई । उन
दोनोको निरति ले गया, क्योंकि उसके कोई सन्तान न
धी॥ १-२॥ दम्भ और मायासे लोभ और निकृति
(शठता) का जन्म हुआ, उनसे क्रोध और हिसा तथा
उनसे कलि (कलह) और उसकी बहिन दुरुक्ति (गाली)
उत्पन्न हुए॥ ३॥ साधुशिरोमणे ! फिर दुरुक्तिसे कलिने
भय और मृत्युको उत्पन्न किया तथा उन दोनोंके संयोगसे
यातना और निरय (नरक) का जोड़ा उत्पन्न हुआ ॥ ४ ॥
निष्पाप विदुरजी ! इस प्रकार मैंने संक्षेपसे तुम्हें प्रलयका
कारणरूप यह अधर्मका वंश सुनाया। यह अधर्मका
त्याग कराकर पुण्य-सम्पादनमें हेतु बनता है; अतएव
इसका वर्णन तीन बार सुनकर मनुष्य अपने मनकी
मलिनता दूर कर देता है ॥ ५॥ कुरुनन्दन ! अब मैं
श्रीहरिकि अंश (ब्रह्माजी) के अंशसे उत्पन्न हुए
पवित्रकीर्तिं महाराज स्वायम्मुव मनुके पुत्रोंके
वंशका वर्णन करता हूँ॥ ६॥
महारानी शतरूपा और उनके पति स्वायम्भुव मनुसे
्रियत्रत और उत्तानपाद--ये दो पुत्र हुए। भगवान्
वासुदेवकी कलासे उत्पन्न होनेके कारण ये दोनों संसारकी
रक्षामें तत्पर रहते थे॥७॥ उत्तानपादके सुनीति और
सुरुचि नामकौ दो पत्नियां थीं। उनमें सुरुचि जाको
अधिक प्रिय थी; सुनीति, जिसका पुत्र भ्रुव था, उन्हें वैसी
प्रिय नहीं थी॥८॥
एक दिन राजा उत्तानपाद सुरुचिके पुत्र उत्तमको
गोदमें बिठाकर प्यार कर रहे थे। उसी समय धुबने भी
गोदमें बैठना चाहा, परन्तु राजाने उसका स्वागत नहीं
किया॥ ९॥ उस समय घमण्डसे भरी हुई सुरुचिने अपनी
सौतके पुत्र धुवको महाराजकी गोदमें आनेका यत्न
करते देख उनके सामने हो उससे डाहभरे शब्दोंमें
कहा॥ १०॥ “बच्चे! तू राजसिंहासनपर बैठनेका
अधिकारी नहीं है। तू भी राजाका ही बेटा है, इससे क्या
हुआ; तुझको मैंने तो अपनी कोख नहीं धारण
किया ॥ ६१॥ तू अभी नादान है, तुझे पता नहीं है कि तूने
किसी दूसरी ख्रीके गर्भसे जन्य लिया है; तभी तो ऐसे
दुर्लभ विषयकी इच्छा कर रहा है॥१२॥ यदि तुझे
राजसिंहासनकी इच्छा है तो तपस्या करके परम पुरुष
श्रीनाशयणकी आराधना कर और उनकी कृपासे मेरे गर्भमें
आकर जन्म ले' ॥ १३॥
श्रीपैन्रेयजी कहते है--विदुरजी ! जिस प्रकार
इंडेकी चोट खाकर साँप फुँफकार मारने लगता है, उसी
प्रकार अपनी सौतेली माँके कठोर वचनोंसे घायल होकर
ध्रव क्रोधके मारे लंबी-लंबी साँस लेने लगा। उसके
पिता चुपचाप यह सब देखते रहे, हसे एक शब्द भी
नहीं बोले। तब पिताको छोड़कर धुव ग्ेता हुआ अपनी
माताके पास आया ॥ १४॥ उसके दोनों होठ फड़क रहे
थे और वह सिसक-सिसककर रो रहा था। सुनीतिने
बेटेको गोदमें उठा लिया और जब महलके दूसरे लोगोंसे
अपनी सौत सुरुचिकी कही हुई बातें सुनी. तब उसे भी
बड़ा दुःख हुआ॥ १५॥ उसका धीरज दूट गया। वह
दावानलसे जली हुई बेलके समान शोकसे सन्तप्त होकर
मुस्झा गयी तथा विलाप करने लगी। सौतकी बातें याद
आनेसे उसके कमल-सरीखे नेत्रोंमें आँसू भर
आये ॥ १६॥ उस येचारौको अपने दुःखपारावारका कहीं
अन्त ही नहीं दिखायी देता था। उसने गहरी साँस लेकर
धरुवसे कहा, 'बेटा ! तू दूसरोंके लिये किसी प्रकारके
अमड्नलकी कामना मत कर। जो मनुष्य दूसरोंको दुःख
देता है, उसे स्वयै ही उसका फल भोगना पड़ता
है॥ १७॥ सुरुचिने जो कुछ कहा है, ठीक ही है;
क्योंकि महाराजको मुझे 'पत्नी' तो क्या, "दासौ" स्वीकार
करनेमे भी लज्जा आती है । तूने मुझ मन्दभागिनीके गर्भसे
ही जन् लिया है ओर मेरे ही दूधसे तू पला है॥ १८ ॥
बेटा ! सुरुचिने तेरी सौतेली माँ होनेपर भी वात बिलकुल
ठीक कही है; अतः यदि राजकुमार उत्तमके समान