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दस हाथका अथवा बारह हाथका होना चाहिये।

शेष आठ मण्डपोंको दो-दो हाथ बढ़ाकर रखे।

(इस प्रकार कुल नौ मण्डप होने चाहिये।) [पाद

आदिसे वृद्धलिज्ञोंकी स्थापनामें पादों (पायों)-

के अनुसार मण्डप बनाबे। बाणलिड्ज, रत्नजलिड्र

तथा लौहलिड्रकी स्थापनाके अवसरपर हास्तिक

(आठ हाथवाले) मण्डपके अनुसार सब कुछ

बनावे। अथवा जो देवीका प्रासाद हो, उसके

अनुसार मण्डप बनावे। समस्त लिड्लोंके लिये

प्रासाद-निर्माणकी विधि शैव-शास्त्रके अनुसार

जाननी चाहिये। घन, घोष, विराग,काश्नन, काम

राम, सुवेश, घर्मर तथा दक्ष-ये नौ लिड्रोंके

लिये नौ मण्डपोके नाम हैं। चारों कोणोंमें चार

खंभे हों और दरवाजोंपर दो-दो। यह सब

हास्तिक-मण्डपके विषयमें बताया गया है। उससे

विस्तृत मण्डपमें जैसे भी उसकी शोभा सम्भव

हो, अन्य खंभोंका भी उपयोग किया जा सकता

है।]*॥ १८-१९॥

मध्य-मण्डलमें चार हाथकी वेदी बनावे।

उसके चारों कोनोंमें चार खंभे हों। बेदी और

पायोंके बीचका स्थान छोड़कर कुण्डोंका निर्माण

करें। इनकी संख्या नौ अथवा पाँच होनी चाहिये।

ईशान या पूर्व दिशामें एक ही कुण्ड बनावे। वह

गुरुका स्थान है। यदि पचास आहुति देनी हो तो

मुदरी बधे हाथसे एक हाथका कुण्ड होना चाहिये।

सौ आहुतियाँ देनी हों तो कोहनीसे लेकर

कनिष्टिकातकके मापसे एक अरत्नि या एक

हाथका कुण्ड बनावे। एक हजार आहुतियोंका

होम करना हो तो एक हाथ लंबा, चौड़ा और

गहरा कुण्ड हो। दस हजार आहुतियोंके लिये

२०५

पृ

ए:# कक # कक के के के के # # # # ४ # ५

आहतियोंके लिये चार हाथके और एक करोड़

आहुतियोंके लिये आठ हाथके कुण्डका विधान

है। अग्निकोणमें भगाकार, दक्षिण दिशामें

अर्धचन्द्राकार, नैऋत्यकोणमे त्रिकोण (पश्चिम

दिशामें चन्द्रमण्डलके समान गोलाकार),

वायव्यकोणमें षट्कोण, उत्तर दिशामें कमलाकार,

ईशानकोणमें अष्टकोण (तथा पूर्व दिशामें चतुष्कोण)

कुण्डका निर्माण करना चाहिये॥ २०--२३॥

कुण्ड सब ओरसे बराबर और ढालू होना

चाहिये। ऊपरकी ओर मेखलाएँ बनी होनी

चाहिये। बाहरी भागमें क्रमश: चार, तीन और दो

अङ्गुल चौड़ी तीन मेखलां होती हैं। अथवा एक

ही छः अङ्गुल चौड़ी मेखला रहे। मेखलाएँ

कुण्डके आकारके बराबर ही होती हैं। उनके

ऊपर मध्यभागमें योनि हो, जिसकी आकृति

पीपलके पत्तेकी भाँति रहे। उसकी ऊँचाई एक

अङ्गुल और चौड़ाई आठ अङ्गुलक होनी चाहिये।

लंबाई कुण्डार्धक तुल्य हो। योनिका मध्यभाग

कुण्डके कण्ठकी भाँति हो, पूर्व, अग्रिकोण और

दक्षिण दिशाके कुण्डॉंकी योनि उत्तराभिमुखी

होनी चाहिये, शेष दिशाओंके कुण्डोंकी योनि

पूर्वाभिमुखी हो तथा ईशानकोणके कुण्डकी योनि

उक्त दोनों प्रकारोंमेंसे किसी एक प्रकारकी

(उत्तराभिमुखी या पूर्वाभिमुखी) रह सकती

है॥ २४--२७॥

कुण्डोंका जो चौबीसवाँ भाग है, वह "अङ्गुल

कहलाता है। इसके अनुसार विभाजन करके

मेखला, कण्ठ और नाभिका निश्चय करना

चाहिये। मण्डपमें पूर्वादि दिशाओंकी ओर जो

चार दरवाजे लगते हैं, वे क्रमशः पाकड़, गूलर,

इससे दूने मापका कुण्ड होना चाहिये। लाख | पीपल और बड़की लकड़ीके होने चाहिये।

* प्रसज्षको ठौकसे समझनेके लिये 'कर्मकाण्ड-क्रमावली "से अपेक्षित अंश यहाँ भावार्थरूपमें उद्धृत किया गया है । (देखिये

श्लोक-० १३३३ से १३३६)

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